प्रतीक्षा की छाया नहीं घटती, दीर्घ से
दीर्घतर बढ़ती जाती है ज़िन्दगी,
तुम्हें छूने की चाह में घिर
आता है अंधकार, झर
जाते हैं शून्य में
जाने कहां
सभी
मेघ कण, रह जाते हैं हथेलियों में -
सिर्फ कुछ बूंदे निराकार, तुम्हें
छूने की चाह में घिर आता
है अंधकार। आकाश
अपने कांधे पर
लटकाए
हुए
रात का झोला उतरता है सधे क़दमों
से, बाँध जाता है सुनसान गली
कूचों में झिलमिलाता हुआ
ख़्वाबों का वंदनवार,
तुम्हें छूने की
चाह में घिर
आता
है अंधकार। हमारे मध्य आज भी है
एक अनूप की गहराई, कभी
उम्र से लंबी ज्वार की
लहरें भिगोती हैं
दोनों छोर
की
भूमि, और कभी दूर तक फैला हुआ
है बालुओं का साम्राज्य, सिर्फ
उतराई और उतराई, फिर
भी एक सेतु मज़बूती
से झूलता रहता
है हमारे आर
पार, तुम्हें
छूने
की चाह में घिर आता है अंधकार। -
* *
- - शांतनु सान्याल
21 जून, 2021
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जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (२३-0६-२०२१) को 'क़तार'(चर्चा अंक- ४१०४) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंबहुत सुंदर सृजन
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंसभी समेटे, सिमटे सब में,
जवाब देंहटाएंमौन खड़े हैं इस कलरव में।
अविभक्त की सुन्दर अभिव्यक्ति
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंबहुत खूबसूरत लेखन
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
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