बर्फ़ का दरिया है एक दिन पिघल
जाएगा, समय का सिक्का
उछलता रहता है
अपनी जगह
आज का
दिन
शायद न हो मेरे लिए कोई ख़ास,
मुझे यक़ीन है कि कल वो
ज़रूर कुछ ख़ास ख़बर
ले के आएगा, बर्फ़
का दरिया है
एक दिन
पिघल
जाएगा। विस्मित आरशी है तो
रहे अक्स मुस्कुराना कैसे
भूले, अतीत के फेंके
हुए बुनियादों पर,
फिर अनेक
मंज़िलें
उभर
आएंगी, लड़खड़ाता हुआ आज
का दिन साँझ गहराते ही
संभल जाएगा, बर्फ़
का दरिया है
एक दिन
पिघल
जाएगा, स्तूपाकार इस दर्द को
रहने दो यूँ ही भूमिगत,
जितना उत्खनन
करोगे उतना
ही देह -
प्राण
से बाहर दूर तक बिखर जाएगा,
समय का मरहम किसी एक
का नहीं है पेटेंट, ज़रा
इंतज़ार करो इस
दर्द से जीवन
एक रोज़
संभल
जाएगा, बर्फ़ का दरिया है एक
दिन पिघल जाएगा - -
* *
- - शांतनु सान्याल
07 मई, 2021
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past
-
नेपथ्य में कहीं खो गए सभी उन्मुक्त कंठ, अब तो क़दमबोसी का ज़माना है, कौन सुनेगा तेरी मेरी फ़रियाद - - मंचस्थ है द्रौपदी, हाथ जोड़े हुए, कौन उठेग...
-
कुछ भी नहीं बदला हमारे दरमियां, वही कनखियों से देखने की अदा, वही इशारों की ज़बां, हाथ मिलाने की गर्मियां, बस दिलों में वो मिठास न रही, बिछुड़ ...
-
मृत नदी के दोनों तट पर खड़े हैं निशाचर, सुदूर बांस वन में अग्नि रेखा सुलगती सी, कोई नहीं रखता यहाँ दीवार पार की ख़बर, नगर कीर्तन चलता रहता है ...
-
जिसे लोग बरगद समझते रहे, वो बहुत ही बौना निकला, दूर से देखो तो लगे हक़ीक़ी, छू के देखा तो खिलौना निकला, उसके तहरीरों - से बुझे जंगल की आग, दोब...
-
उम्र भर जिनसे की बातें वो आख़िर में पत्थर के दीवार निकले, ज़रा सी चोट से वो घबरा गए, इस देह से हम कई बार निकले, किसे दिखाते ज़ख़्मों के निशां, क...
-
शेष प्रहर के स्वप्न होते हैं बहुत - ही प्रवाही, मंत्रमुग्ध सीढ़ियों से ले जाते हैं पाताल में, कुछ अंतरंग माया, कुछ सम्मोहित छाया, प्रेम, ग्ला...
-
दो चाय की प्यालियां रखी हैं मेज़ के दो किनारे, पड़ी सी है बेसुध कोई मरू नदी दरमियां हमारे, तुम्हारे - ओंठों पे आ कर रुक जाती हैं मृगतृष्णा, पल...
-
बिन कुछ कहे, बिन कुछ बताए, साथ चलते चलते, न जाने कब और कहाँ निःशब्द मुड़ गए वो तमाम सहयात्री। असल में बहुत मुश्किल है जीवन भर का साथ न...
-
उस अदृश्य कुम्हार के दिल में, जाने क्या था फ़लसफ़ा, चाहतों के खिलौने टूटते रहे, सजाया उन्हें जितनी दफ़ा, वो दोपहर की - - धूप थी कोई मुंडेरों से...
-
वो किसी अनाम फूल की ख़ुश्बू ! बिखरती, तैरती, उड़ती, नीले नभ और रंग भरी धरती के बीच, कोई पंछी जाए इन्द्रधनु से मिलने लाये सात सुर...
बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (०८-०५ -२०२१) को 'एक शाम अकेली-सी'(चर्चा अंक-४०५९) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंशांतनु जी, बहुत ही गहरी छाप छोड़ती रचना है ये...कि
जवाब देंहटाएंबर्फ़
का दरिया है
एक दिन
पिघल
जाएगा, स्तूपाकार इस दर्द को
रहने दो यूँ ही भूमिगत,
जितना उत्खनन
करोगे उतना
ही देह -
प्राण
से बाहर दूर तक बिखर जाएगा..बहुत सुंदर
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंवाकई एक न एक दिन सब ठीक हो जायेगा
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंऐसा ही हो. यह वक़्त भी गुज़र जाएगा.
जवाब देंहटाएंजगजीत सिंह जी की गाई एक ग़ज़ल का शेर अनायास ही याद आ गया...
मुस्कुराहट है हुस्न का ज़ेवर
मुस्कुराना ना भूल जाया करो.
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंबिल्कुल यह दुख का बर्फ जल्द पिघलेगा और नदी का रूप लेकर फिर से कलकल हमारा जीवन होगा।
जवाब देंहटाएंबहुत ही बेहतरीन रचना।
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएं👌👌वाह! बहुत ही बेहतरीन 👌👌👌
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएं