निष्प्राण आईना तलाशता है इक
अदद चेहरा, मुखौटों के इस
शहर में अब ख़ालिस
अक्स का पता
कोई नहीं
जानता,
दूर
तक है रेत के नीचे रूहों की बस्ती,
दिन है यहाँ गूंगा और रात
जैसे हो सदियों से बहरा,
निष्प्राण आईना
तलाशता है
इक
अदद चेहरा। मृत्यु प्रमाण पत्र ले
कर भी भला कोई क्या करेगा,
हमारे वसीयत में कोई
चाँद सितारा न
था, बदल
दो वो
सभी तथाकथित मोक्ष के रास्ते,
कहने को सभी थे मेरे अपने,
हक़ीक़त में लेकिन कोई
दूर तक भी हमारा
न था, उभर
आएंगे
सभी
सत्य एक दिन, भुरभुरी ज़मीन
पर, सैलाब का पानी नहीं
होता है गहरा, निष्प्राण
आईना तलाशता है
इक अदद
चेहरा।
* *
- - शांतनु सान्याल
27 मई, 2021
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बहुत सुंदर सृजन।
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंसत्य एक दिन, भुरभुरी ज़मीन
जवाब देंहटाएंपर, सैलाब का पानी नहीं
होता है गहरा, निष्प्राण
आईना तलाशता है
इक अदद
चेहरा।---बहुत ही अच्छी और गहरी कविता है आपकी।
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंआज के दर्द को सटीक अभिव्यक्ति देती सुंदर रचना ।
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंसादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (28 -5-21) को "शब्दों की पतवार थाम लहरों से लड़ता जाऊँगा" ( चर्चा - 4079) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
--
कामिनी सिन्हा
आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंसुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंसटीक अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
हटाएंबहुत सुन्दर अभिव्यक्ति, बधाई.
जवाब देंहटाएंआपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।
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