09 मई, 2021

कदाचित फिर मिलें - -

एकाकी जीवन चला जा रहा है
सुदूर, न जाने कहां किस
की चाह में, बिखरे
पड़े हैं असंख्य
कांच के
पल
ख़ामोश, ज़िन्दगी की राह में, -
सुनसान मोड़ पर कहीं
वो आज भी है
मुंतज़िर,
भीगे
ज़िल्द में हो जैसे कोई सांझ -
रात की पनाह में, एकाकी
जीवन चला जा रहा है
सुदूर, न जाने
कहां किस
की चाह
में।
सभी मेघ उड़ जाएंगे बिहान से
पहले, ख़्वाब के मख़मली
सिलवटों में कहीं रह
जाएंगे कुछ मौन
स्पर्श, कुछ
अंतरंग
शब्द,
शायद, फिर मिले कहीं किसी
और गहनतम अथाह में,
एकाकी जीवन चला
जा रहा है सुदूर,
न जाने
कहां
किस की चाह में।

* *
- - शांतनु सान्याल
 
 







2 टिप्‍पणियां:

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past