13 मई, 2021

भावशून्य गंगा - -

हर तरफ है मौन मृत्यु जुलूस, गूंगी एहसास,
दूर तक रुद्ध विलाप, फिर भी ज़िन्दगी
दौड़ती है आख़री सांस तक, गली
कूचों से निकल कर, नगर
सीमान्त के उस पार,
कहीं किसी मोड़
पर शायद
मिल
जाए वो अदृश्य पहरेदार। भावशून्य गंगा - -
तकती है सेतु के प्राचीर को, अभी अभी
कोई फेंक गया है किसी अपने एक
आत्मीय को, कञ्चन देह का
मूल्य है माटी, फिर भी
निष्ठुरता का अंत
नहीं, अनुराग
प्रेम सब
कुछ
प्लावित हैं चिथड़ों में सारमेयों के बीच - -
कालाधन संचित करने में लगे हैं
धर्म कर्म के ठेकेदार, कहीं
किसी मोड़ पर शायद
मिल जाए वो
अदृश्य
पहरेदार, जो कर पाए इस जग का - - -
पुनरुद्धार - -

* *
- - शांतनु सान्याल 

13 टिप्‍पणियां:

  1. हृदयस्पर्शी।
    बेहतरीन अभिव्यक्ति।

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  2. मर्म को छूती और दायित्व बोध जगाती रचना!!!

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  3. अंतर्मन में आशा की किरणें रखनी चाहिए। आपने इस हौसला को बखूबी बाँधा है। भावुक रचना।

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  4. किसी मोड़ पर शायद
    मिल जाए वो
    अदृश्य
    पहरेदार, जो कर पाए इस जग का - - -
    पुनरुद्धार - -
    काश कि मिल जाये ऐसा पुनरुद्धार करने वाला
    बहुत ही सुन्दर भावपु सृजन।

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  6. आपका ह्रदय तल से असंख्य आभार, नमन सह।

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