30 दिसंबर, 2011

नज़्म - - शर्तों में ही सही

शर्तों में ही सही, उसने साथ जीने की क़सम 
खाई है, फिर वहीँ से चल पड़े हम जहाँ 
पे कभी उसने साथ छोड़ा था, न 
जाने क्यूँ उसी मक़ाम पर 
आते ही उसकी 
उँगलियाँ 
ख़ुद ब
ख़ुद 
छोड़ जाती हैं हाथ मेरा, शायद उसे ऊँचाइयों 
से डर लगता है, लेकिन इन्हीं घाटियों 
से मिलती है प्रेरणा मुझ को, वो 
खौफ़ जो उसे रखती है दूर,
उन्हीं कांपती सांसों में,
ज़िन्दगी उसे थाम
लेती है सीने से 
लगा कर, 
बरबस !
ये कौन सी अदा है उसकी अक्सर सोचता हूँ 
मैं, जब कभी वो क़रीब आये इक 
ख़मोश खुमारी भी साथ लाये,
बहकना या डगमगाना
ये आदत तो आम 
है लेकिन 
उनकी 
आँखों का नशा है जाने क्या, जब भी देखा 
उन्हें डूब कर, ज़िन्दगी मुक़म्मल
 बेहोश नज़र 
आये ----

--- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.com/

  

28 दिसंबर, 2011

नज़्म - - ज़िन्दगी की राहें,

उठती हैं कहाँ से ये दीर्घ श्वास की बूंदें 
साँझ से बोझिल है ज़िन्दगी की 
राहें,राहतों का हिसाब
रखना न था आसां,
न जाने क्या 
पिलाते 
रहे 
वो दवा के नाम पर, हमने भी की बंद 
आँखें, मुहोब्बत के नाम पर, कहाँ 
से आती हैं ये रुक रुक की 
सदायें, दिल को अब 
तलक यकीं है
वो चाहते 
हैं मुझे, 
ये वहम ही हमें रोक रखता है क़रीब
उनके,  वर्ना बहारों को गुज़रे 
ज़माना हुआ - - - 

- - शांतनु सान्याल
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 PAINTING BY Harry Brioche_evening_sky

05 दिसंबर, 2011

उद्भासित अंतर्मन

निबिड़, आर्द्र अंधकार में उभरती ज्योति पुंज !
प्रायः कर जाती है अंतर्मन आलोकित,
मैं और मेरी छाया, निस्तब्ध 
रात्रि में करते हैं वार्तालाप, 
कहाँ और कैसे छूट
गए मुलायम 
तटबंध,
कुछ अंकुरित स्वप्न, कुछ सुप्त अभिलाषाएं,
जीवन कगार में अध खिले कुछ अनाम
पुष्प, जो अर्ध विकसित ही रहे, 
खिल न सके वो घनीभूत 
भावनाएं, समय की 
तपन पिघला न 
सकी वो 
अतृप्त पिपासा, बिखरी ही रहीं जीर्ण पल्लव 
पर, अनमोल ओष बिन्दुओं के सदृश,
तुम्हारा प्रेम, चाह कर छू न सका 
वो गीत बिखरा रहा संवेदना 
के तारों पर लापरवाही 
से आजन्म, इस 
उधेड़बुन में 
व्यस्त रहा जीवन कि हो पूर्ण संग्रह ब्रह्माण्ड 
हथेलियों में सिमट कर, वो वृष्टि छायित 
भू भाग कभी भीग ही न पाया, 
जबकि सजल नयन थी 
सम्मुख हर पल, 
फिर कभी 
अगर 
पुनर्जीवन हो प्राप्त, ह्रदय लिखेगा वास्तविक 
जीवन उपसंहार, यर्थाथ की कड़वाहट,
नग्न सत्य, छद्मविहीन चरित्र,
सम्पूर्ण सौन्दर्य, आवरण -
हीन प्रतिबिम्ब,

- - शांतनु सान्याल

28 नवंबर, 2011

मुक्क़दस आग 

राहतें थीं बहोत ख़ुद ख्वाह कर गयीं मुझे
मुझ से जुदा, वो मुस्कुराता रहा यूँ
देख मेरी बर्बादी का मंज़र,
चाहे अनचाहे ज़िन्दगी
ने उसे माफ़ किया,
हकीक़तन -
ये मैं ही था, जिसने जल जाने की -
क़सम खाई थी, ये वही मेरा
वहम है, जो कभी शम'अ 
बन न सका, तुम
जिसे कहते हो
मसीहा,
ये वही शख्स है जिसने दुआ के नाम पे
दी थी मुझे जीने की सज़ा, उसकी
मासूमियत में थी न जाने
कैसी कशिश, तीर
जिगर के पार
हुआ मगर
ज़रा
भी दर्द नहीं, हिरण जैसे ख़ुद ब ख़ुद दौड़
चले शिकारी के जानिब, ये बात
और है, कि न तुम ख़ुदा बन
सके न हमने ही अक़ीदत
में की ईमानदारी, जो
कुछ भी था हमारे
दरमियाँ, वो
रिश्तों की दहलीज़ पहुँच न सका, निगाहों
से धुंआ उठा ज़रूर मगर मुक्क़दस
आग में ढल न सका ।

-- शांतनु सान्याल

 مقّدس آگ

راهتے تھیں بهوت خدكھواه کر گئیں مجھے
مجھ سے جدا، وہ مسکراتا رہا یوں
دیکھ میری بربادی کا منظر،
چاہے ان چاہے زندگی
نے اسے معاف کیا،
هكيقتن --
یہ میں ہی تھا، جس نے جل جانے کی --
قسم کھائی تھی، یہ وہی میرا
وہم ہے، جو کبھی شمع
بن نہ سکا، تم
جسے کہتے ہو
مسیحا،
یہ وہی شخص ہے جس نے دعا کے نام پہ
دی تھی مجھے جینے کی سزا، اس کی
معصومیت میں تھی نہ جانے
کیسی كسيس، تیر
جگر کے پار
ہوا مگر
ذرا
بھی درد نہیں، ہرن جیسے خود بخود خود دوڑ
چلے شكاري کے جانب، یہ بات
اور ہے، کہ نہ تم خدا بن
سکے نہ ہم نے ہی عقیدت
میں کی ایمانداری، جو
کچھ بھی تھا ہمارے
درميا، وہ
رشتوں کی دهليذ پہنچ نہ سکا، نگاہوں
سے دھواں اٹھا ضرور مگر مقّدس
آگ میں ڈھل نہ سکا.
شانتانو  سانیال

27 नवंबर, 2011

परिंदे की तरह - -

ये ज़ख्म नहीं, हैं निशाने ज़िन्दगी, कराहों
में मैंने गुज़ारी है उम्र मुस्कुराकर,
तू चाहे तो बदल ले रास्ता
अपना, हमें तो आदत
है पिघलते राहों
में चलना,
यहीं पे कहीं था बैठा, ठिठुरता बचपन मेरा,
वक़्त की चादर थी छोटी, सहेज न
सकी नादानियाँ मेरी, खेलता
रहा तनहा नंगे बदन, इन
सर्द हवाओं में बारहा,
तेरा आँचल नहीं
मंज़िल मेरी,
करना है पार मुझे चाँद तारों की दुनिया,
वो थकन ही थी, हमराह दोस्त
मेरी, जिसने दिखाए हर
पल ख़्वाब नए, तू
मिला मुझे
ज़रूर
लेकिन तब तलक मैं सहरा पीछे छोड़
चुका, अब ये कारवां है घर मेरा,
हर क़दम इक नया वतन,
हर सांस पे रूकती है
मंज़िल मेरे लिए,
हवाओं के
रुख
का इंतज़ार न करना, न जाने कहाँ मेहरबां
हो जाएँ ये बंजारे बादल, चाह कर
भी मुश्किल है सराय में
रुकना, हूँ आदतन
इक जुनूनी
ग़र
रुक गया तो शायद फिर कभी उड़ न पाऊंगा.

-- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.com/
  lake -Artist Jeanine Malaney


یہ زخم نہیں ، ہیں نشانے زندگی ، كراهو
میں نے گذاري ہے عمر مسکرا کر ،
تو چاہے تو بدل لے راستہ
اپنا ، ہمیں تو عادت
ہے پگھلتے راہوں
میں چلنا ،
یہیں پہ کہیں تھا بیٹھا ، ٹھٹھرتا بچپن میرا ،
وقت کی چادر تھی چھوٹی ، محفوظ نہ
سکی نادانيا میری ، کھیلتا
رہا تنہا ننگے بدن ، ان
سرد ہواؤں میں بارها ،
تیرا اچل نہیں
منزل میری ،
کرنا ہے پار مجھے چاند تاروں کی دنیا ،
وہ تھكن ہی تھی ، ہمراہ دوست
میری ، جس نے دکھائے ہر
پل خواب نئے ، تو
ملا مجھے
ضرور
لیکن تب تلک میں سهرا پیچھے چھوڑ
چکا ، اب یہ کارواں ہے گھر میرا ،
ہر قدم اک نیا وطن ،
ہر سانس پہ روكتي ہے
منزل میرے لیے ،
ہواؤں کے
رخ
کا انتظار نہ کرنا ، نہ جانے کہاں مےهربا
ہو جائیں یہ بجارے بادل ، چاہ کر
بھی مشکل ہے سرائے میں
رکنا ، ہوں ادتن
اک جنونی
غر
رک گیا تو شاید پھر کبھی اڑ نہ پاوگا.
- shantanu sanyal

10 नवंबर, 2011


क़ुर्बानगाह

फिर वही दस्तूर ज़माना, फिर वही क़ुर्बानगाहों
में लगे हैं मेले, किस से कहे दिल अपनी
वज़ाहत, हर शख्स यहाँ पुरअसरार,
देखे है उसे लानत की तरह,
इनक़लाब डूब चले
सभी उठने से
पहले,
सूरज के तूफ़ान छोड़ पाए न दायरा, उसी ज़मीं
में दहके ज़रूर लेकिन, राख़ से ज़्यादा
 न दे सके वो ज़िन्दगी को, न जाने
किस गिरफ़्त में थे वो लोग,
आंसू बहाए ज़रूर, ज़बां
न खोल पाए,
उतारते
रहे बार बार, सलीब से लहूलुहान ज़िन्दगी को,-
चाबुक के चमक में चीखती रही कहीं
मुहब्बत, तौहीन के डर से लोग
पढ़ते रहे, अनसमझ
किताबें, अज़ाब
का पैबंद
लगा
गए दानिशवर, पहेली से ज़ियादा न थे वो
परछाइयाँ, उभरे आसमां में यूँ
खुबसूरत कमान की
मानिंद, रंग बिखेर
पाते कि घिर
आई
बदलियाँ, फिर वही रात का सन्नाटा मुसलसल.

-- शांतनु सान्याल
Sun_God___Surya_by_DevaShard
قربانگاه

پھر وہی دستور زمانہ، پھر وہی قربانگاهو
میں لگے ہیں میلے، کس سے کہے دل اپنی
وضاحت، ہر شخص یہاں پراسرار،
دیکھے ہے اسے لعنت کی طرح،
انقلاب ڈوب چلے
تمام اٹھنے سے
پہلے،
سورج کے طوفان چھوڑ پائے نہ دائرہ، اسی زمیں
میں دهكے ضرور لیکن، راخ سے زیادہ
  نہ دے سکے وہ زندگی کو، نہ جانے
کس گرفت میں تھے وہ لوگ،
آنسو بہائے ضرور، ذبا
نہ کھول پائے،
اتارتے
رہے بار بار، سليب سے لهولهان زندگی کو، --
چابك کے چمک میں چیکھتی رہی کہیں
محبت، توہین کے ڈر سے لوگ
پڑھتے رہے، انسمجھ
کتابیں، عذاب
کا پےبد
لگا
گئے دانشور، بیت سے زیادہ نہ تھے وہ
پرچھايا، ابھرے آسماں میں یوں
كھبسورت کمان کی
ماند، رنگ بکھیر
پاتے کہ گھر
آئی
بدليا، پھر وہی رات کا سناٹا مسلسل.

شانتنو سانیال 

09 नवंबर, 2011

मेरा वहम

दिल फ़रेब ही सही कोई तो है चाहने वाला 
हमनफ़स न सही, बावाकिफ़ तो है 
वो बुझते हुए अंगारों से, 
उसकी सांसों की 
आंच ले घिर 
चले हैं 

फिर वादियों में सुरमई बादलों के महराब -
सूखे जरियान में उठ चलें  हैं 
चाहतों के लहर, खिल 
चले हैं वहशी गुल,
ज़िन्दगी फिर 
हमआहंग

है भूली बिसरी गीतों को गाने के लिए, न तोड़ 
यूँ मेरा वहम कि उठा हूँ मैं अभी अभी 
सजदे के बाद, उसके दिल में देखा 
है मैंने बुझते चिराग़ों की
रौशनी, सुफ़ियाना -
कायनात,

-- शांतनु सान्याल
  http://sanyalsduniya2.blogspot.com/ 

میرا وهم
دل فریب ہی سہی کوئی تو ہے چاہنے والا
همنفس نہ سہی، باواكف تو ہے
وہ بجھتے ہوئے انگاروں سے،
اس کی سانسوں کی
آنچ لے گھر
چلے ہیں

پھر مدعیان میں سرمي بادلوں کے مهراب --
سوکھے جريان میں اٹھ چلیں ہیں
چاهتو کے لہر، کھل
چلے ہیں وحشی گل،
زندگی پھر
هماهگ

ہے بھولی بسري گیتوں کو گانے کے لئے، نہ توڑ
یوں میرا وہم کہ اٹھا ہوں میں ابھی ابھی
سجدے کے بعد، اس کے دل میں دیکھا
ہے میں نے بجھتے چراغو کی
روشنی، سفيانا --
کائنات،
شانتنو سانیال 

06 नवंबर, 2011


भीगी ख्वाहिश 

मुद्दतों बाद फिर बारिश ने भिगोया दिल की 
सूखी ज़मीं, कहीं से तुमने फिर पुकारा 
है मुझे, सज चले हैं अपने आप 
अहसासों के टीले, फिर 
खिलना चाहें काँटों 
से झांकते हुए 
कैक्टस के 
फूल,
ज़िन्दगी करवट बदलती सी लगे है,भीगे 
ख़्वाब है बेताब गले मिलने को मेरे,
दामन में बूंदों की लड़ी लिए 
बैठी है रात, लेकिन 
निगाहों से जैसे 
नींद है खफ़ा,
नाराज़,
चाँद देखने की ज़िद लिए बैठा है, बहुत 
नादाँ है दिल मेरा ---

-- शांतनु सान्याल  
 http://sanyalsduniya2.blogspot.com/
PAINTING BY   -Don Valeri Grig de Kalaveras 

05 नवंबर, 2011


आसां नहीं ये दोस्त -

इस विरानगी से न पूछो जश्ने ज़िन्दगी के मानी 
इन गलियों न देखा कभी ईद ओ दिवाली,
इक तीरगी है जो मुसलसल बहती है - 
रग़ों से गुज़र कर दिलों तक, कि
उन ख़्वाब के खिलौने, जो 
शीशों में हैं ढले, न दे 
मुझे फिर वही 
खुबसूरत 
तोहफ़ा, टूट जायेंगे सभी, नाज़ुक हैं ये दिलों के 
रिश्ते, अक्श चाँद का था आरज़ी, पलक 
झपकते रात बिखेर जायेगी अँधेरा,
सीड़ियों से लगता है बहुत
क़रीब कहकशां  का 
शहर, लेकिन 
मुझे 
मालूम है, ब्रह्माण्ड की हकीक़त, कि शिफ़र में 
झूलतीं हैं अहद वादों की पर्चियां, तुम 
जी लो खुद के लिए यही कम नहीं,
न खाओ क़सम किसी और के 
लिए, आसां नहीं इतना 
कि लुटा जाओ 
दुनिया 
मुहोब्बत के लिए, 

-- शांतनु सान्याल 
rainbow_galaxy_Nina Yang Painting 

03 नवंबर, 2011

लापता हूँ मैं -

वो चाहते हैं मुझ से मिलना, न जाने किस -
लिए, सुना है उनकी नज़्मों में होता 
है ज़िक्र मेरा, दरअसल मेरे घर 
के आगे नहीं है कोई नदी, 
न ही आकाशगंगा, न 
कोई नील पर्वत,
न ही मचलता 
समुद्र तीर, 
इक 
ख़ामोशी है ज़िन्दा दूर तलक, यहाँ कोई 
अपना नहीं, यही क्या कम है कि
जी रहा हूँ मैं, ये कोई सपना 
नहीं, किसने दिया है 
उन्हें ग़लत पता,
ख़ुदा जाने, 
उनकी 
तलाश है सिमित, लौट जायेगी अपने ही 
द्वार से, खिड़कियों से चांदनी होती 
है शामिल रोज़ उनके ख़्वाबों
में कहीं, फिर खिलेंगे कुछ 
जूही ओ चमेली 
रात ढलते,
सुबह 
की चम्पई धूप में वो भूल जायेंगे मेरा ख़याल.

--- शांतनु सान्याल
 http://sanyalsduniya2.blogspot.com/



   

01 नवंबर, 2011


इम्तहां न ले मेरा -

न आज़मा मुझे यूँ बार बार, कुछ तो
वक़्त मिले संवरने का मुझे,
तेरी ख्वाहिश में है न 
जाने कौनसा 
तिलिस्म,
सांस टूट कर भी चाहती है आसमां छूना,
ये इम्तहां मेरे लिए कोई नया नहीं, 
लेकिन हर एक पर्चे पे ज़िन्दगी 
पूछती है लाख सवाल, हर 
सवाल का जवाब होता 
है ज़िन्दगी का 
निचोड़,
इस आग की धारे में चलने की सज़ा ही 
आख़िर मुझे मिट्टी से सोना कर 
गई, वर्ना  दर्द के चमक थे 
फ़िके, हर एक ख़्वाब से 
पहले, रात पूछती 
है मेरी 
तमन्ना, 
सुबह है बर्बाद आशिक़ मेरा, रहता है खड़ा 
चाक गिरेबां, कहीं किसी बस्ती में,
कि ज़िन्दगी चाहती है उसे 
उसका हक़ लौटाना,
कुछ अश्क 
लबरेज़ 
ख़त, मुहब्बत का भरम,सीने की जलन -
और एक मुश्त साँसों की गर्मियां,
सुना है कि उसे है दम की
शिकायत, हो भी न 
क्यूँ कर, उम्र 
भर 
वो तकता रहा एक टक, मेरे चेहरे की तरफ.

-- शांतनु सान्याल
  http://sanyalsduniya2.blogspot.com/
painting by Walfrido 
   

   

17 अक्टूबर, 2011

किस्तों में जीने की अदा

किस्तों में दे जाते हैं वो जीने की हिदायत,
उधार लौटने में कहीं उम्र ही न गुज़र
जाए, उनकी उपहारों में लिखा
होता है कुछ अजीब सा
सन्देश, तात्पर्य
समझने में
कहीं
झुर्रियां न उभर आए, मैं अपनी ही छाया
से स्वयं को बचाए रखता हूँ, कभी
चेहरा कभी दिल के दाग़,
वास्तविकता व
दिखावे में
ज़रा
सा फ़र्क़ बनाये रखता हूँ, तुम्हारी अपनी
कुछ मजबूरियां थीं शायद, तुमने
खींची हैं आतिश की लकीरें,
इर्दगिर्द मेरे जो ख़्वाब
की थीं बस्तियां
सुना है
जा चुके सभी छोड़ कर किसी और शहर
में, त्याग पुत्र की तरह हैं मेरी
आजकल शख़्सियत, कर्ण
की तरह मन खोजता
है कोई दोस्त जो
बुरा हो कर
भी दे
जाय जीवन को नए सन्दर्भ, आयाम
गहरे, डूबने से पहले ज़िन्दगी
को जहाँ अफ़सोस न हो,
यहाँ तो हर दूसरा है
अजनबी चेहरा,
रग़ों में रह
भरता  
है दोस्ती का दम, वक़्त आने पर कर
जाता है किनाराकशी, दे जाता
है किस्तों में हसी, टुकड़ों
में ज़िन्दगी.

-- शांतनु सान्याल
 

12 अक्टूबर, 2011


हासिये में कहीं 

वो परिभाषा जो करती है, रेखांकन से  
मुझे पृथक, वो तुम्हारी सोच है 
वर्ना मन की गहराइयों में
मेरे भी उठते हैं लहर 
किनारे की खोज 
में दूर तलक, भटकती है ज़िन्दगी -
छूने को क्षितिज रेखा, सुना 
है वहीँ कहीं बहती है 
कोई नेह नदी,
छुपाये रहस्य गहरे, खनिज से पिघल 
कर स्वर्ण होने की प्रक्रिया, 
जीवाश्म से जहाँ 
निकलते हैं 
मोती, 
मैं सीप सा खोले वक्ष स्थल, हूँ खड़ा 
उसी तटभूमि के करीब, जहाँ 
कभी तुमने ली थी सपथ,
रौशनी में ढलने की 
अभिलाषा, 
किया था हस्ताक्षर उस इच्छापत्र में -
सहर्ष, कहा था - कर लो मुझे 
आलिंगनबद्ध अनंत 
काल के लिए,
यद्यपि 
काल तो गुज़र गए मौसमों के ओढ़ में,
न तुम बन सके मोती, न मैं 
बन सका नीलकंठ,
रिक्त शुक्ति 
की तरह 
बिखरे हैं स्वप्न सभी ज़िन्दगी के तीर, 

-- शांतनु सान्याल

painting by Duane Murrin


अधूरी प्यास 

ले चलो फिर मुझे धूमकेतु के पथ से
गुज़र कर निहारिकाओं के
शहर में, ऊब चूका हूँ
मैं दिन रात के
दहन से,
वही आंसू वही सिसकियाँ, फ़रेब के
रेशमी फंदे, रिश्तों के हाट
न जाने कितनी बार
लोग परखेंगे
 मुझे,
वो जो बहती जा रही है जीवन नौका
बिन माझी बिन मस्तूल, रोक
भी लो मेरी सांसें बिखरने
से पहले, कोहरों ने
शर्त रखी है
डूबाने की ख़ातिर, इक रात ही की बात
है, खोल भी दो इत्र की शीशी
बिखर जाने दो  प्रणय
गंध, भूल जाएँ
घने धुंध
रास्ता, मुड़ जाएँ शायद अन्य दिशा में,
नींद में जैसे चलतीं हों परछाइयाँ
हूँ मैं आवरणहीन फिर भी
न जाने तुम चाह कर
भी नहीं चाहते मेरा
व्यक्तित्व
छूना,
मैं शीशा नहीं कि टूट जाऊं ज़रा सी -
ठेस से, कभी तो करो स्पर्श
कि ज़िन्दगी है बुझी
सलाख सी, इक
अधूरी प्यास
सी.

-- शांतनु सान्याल


    


10 अक्टूबर, 2011


अनुसंधानी नेत्र 

जीवन के कुछ अभिनव अर्थ
अनदेखे  गंतव्य, बनाते 
हैं मुझे प्रवासी पंछी, 
यायावर सोच 
भटकती है भूल भुलैया की 
सीड़ियों से हो कर कहीं, 
अन्तरिक्ष के शून्य 
में खोजती हैं 
आँखें 
जन्म मृत्यु के रहस्य, दिन व 
रात की चीख, जीने की 
अदम्य, उत्कंठित
गहराई, 
रूप रंग से परे एक भू प्रदेश, 
घृणा, पूर्वाग्रह विहीन एक 
धरातल, जहाँ स्वप्न 
खिलते हों 
निशि पुष्प की तरह, ओष में 
भीगते हों भावनाएं, शेष 
प्रहर में झरते हों 
पारिजात, 
ह्रदय में जागे जहाँ उपासना 
पारदर्शी हों रिश्तों के 
आवरण, स्वर्णिम 
मुस्कानों 
से झरे मानवता की दीप्ति,
मौलिक प्रणय गंध में 
समाहित हों जहाँ 
निश्वार्थ 
अंतर्मन, हर कोई महसूस करे 
भीगी पलकों की तरलता,
कम्पित मन की 
व्यथा, 
मुखौटा विहीन परिपूर्ण धरा.

-- शांतनु सान्याल

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Landscape paintings - Stuart Kirby 






28 सितंबर, 2011


बिहान पुनः मुस्कुराये 

रेशमी जालों से निकल कभी पारदर्शी पंख लिए,

निस्तब्ध झील से उठ कर नीली घाटियों 

में कहीं, अनन्य कुसुमित वीथी 

जहाँ हो प्रतीक्षारत,

स्वरचित अग्निवलय- परिधि से बाहर उभरते 

हैं, रश्मि पुंज, जीवन रचता है जहाँ

नई परिभाषाएं, उच्छ्वास से 

झरते हैं सुरभित 

अभिलाष, कभी तो देख मुक्त वातायन पार की 

पृथ्वी, क्षितिज देता है रंगीन आवाज़,

साँझ उतरती है वन तुलसी के 

गंध लिए, देह बने 

सांध्य प्रदीप, हों तिमिर, प्रदीप्त पलकों तले,

रात रचे फिर जीने की सम्भावना 

स्वप्न हों मुकुलित दोबारा 

बिहान फिर मुस्कुराये.

-- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.com/

27 सितंबर, 2011

ग़ज़ल - - सकूत निगाह

मतलब जाने क्या था उस सकूत निगाह का यारब
शोले थे मताजुब देख, उस सर्द ख़ाक का सुलगना

मुमकिन न था, हर ज़हर को हलक पार करना   
बेज़ान थी, तपिश मुश्किल था संग का पिघलना

वो जिस मक़ाम से देता है, मुझे सदायें तड़प कर  
तुरे आतिशफिशां पे तै था लेकिन ताज का ढहना

रोक लेता किसी तरह भी मैं उस कोलाके क़हर को
आसां न था शीशा ए दर्द को छूके फिर से संभलना

शबनम के वो  क़तरे ठहरे रहे काँटों की नोक पे यूँ
ख़ुश्क पत्ते थे बदनसीब, दुस्वार था फिरसे भीगना

रुकी रही देर तक फ़लक पे सितारों की वो मजलिस   
चाह कर भी हो न सका ज़ीस्त का घर से निकलना.

-- शांतनु सान्याल  
अर्थ -
मताजुब - आश्चर्य से
 सकूत - ख़ामोशी
आतिशफिशां - ज्वालामुखी
 मजलिस  - संस्था
कोलाके क़हर - तूफ़ान की बर्बादी
ज़ीस्त  - जीवन
 


24 सितंबर, 2011


अछूता बचपन 

परिसीमित अंचल मेरा स्रोत के विपरीत 
बह न सका, झूलते बरगद के मूल 
थामे मैं तकता रहा सांझ का 
उदास चेहरा, परिश्रांत, 
शिथिल,कोसों 
चल कर आता हुआ जीवन तटभूमि छू न 
सका, इस वन्य वीथि से हो कर जाती 
हैं कुछ पगडंडियाँ, नियति की 
रेखाओं की तरह, तिर्यक 
कभी समानांतर, 
निस्तेज आँखों में डूबती हैं भावी स्वप्नों की 
दुनिया, उसने चाहा था शरद की एक 
मुट्ठी ज्योत्स्ना, हेमंती धूप की 
कुछ परतें, शेमल की 
उड़तीं रेशमी रुई,
सभी ने कहीं न कहीं ऊँचाइयों को छू लिया, 
वो कुछ भी हो न सका, सुबह शाम 
एकटक देखता है वो लौटते 
हुए उजले परिधानों में 
सजे कुलीन बच्चे,
मुस्कराते हुए पालकों का आलिंगन, बड़े 
जतन से थामे हुए मज़बूत हाथ,
ख़ुद को पाता है इन्हीं भीड़ 
का हिस्सा, लेकिन 
कहीं कोई शून्यता उसे लौटा लाती है, वहीँ 
जहाँ से कोई भी राह निकलती नहीं,
आद्र आँखों से वो देखता है नदी 
का कटाव, धंसते किनारे 
बड़े ध्यान से वो पोंछता है रेस्तरां के मेज़ 
भाग्य की परछाई जो कभी उभर 
ही न सकी, जीवन ठहरता 
कहाँ है छूटते बचपन 
के लिए, 

-- शांतनु सान्याल
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नज़्म - - फ़लसफ़ा ए इश्क़

मर्तूब नफ़स से उठती हैं शाम ढलते
मज़तरब मेरी आहें, लोग कहते
हैं राज़े आतिश का पता नहीं,
महराबे जिस्म में रात
करती हैं तलाश मुझको, फ़िदा होने
से क़बल गुलेयास सजाती है
मेरा बदन खुश्बुओं से,
फिर ज़िन्दगी
गुज़रती है सोजिश राहों से नंगे पांव,
नक्ज़शुदा अहसास उठाते हैं   
ताबूत, मैं फिर ज़िन्दान
से निकल
राहे आसमां में करता हूँ सफ़र कामिल,
ये तेरी चाहत है जो मुझे हर
बार जीला जाती है,
नामहदूद तेरी मुहोब्बत मुझे मरने नहीं
देती, सिफ़र से बारहा उभर आता
हूँ मैं, नज़दीक तेरे बसते हैं
ख़ारिज अज़ आसमां
की दुनिया,
लेते हैं फ़लसफ़ा ए इश्क़ पैदाइश दोबारा.

-- शांतनु  सान्याल

अर्थ :   
  मरतूब - भीगी
गुलेयास - चमेली
मज़तरब - उद्वेलित
सोजिश - सुलगते
नक्ज़शुदा - टूटे हुए
ख़ारिज़ अज़ आस्मां - आकाश पार
फ़लसफ़ा - दर्शन  
 

22 सितंबर, 2011

ग़ज़ल - - ज़िन्दगी से कहीं ज़्यादा

ये गुमां था  वो चाहते हैं, हमें ज़िन्दगी से कहीं ज़्यादा
साँस रुकते ही सभी,वो ख़ुशी केअबहाम दूर होने लगे,

बामे हसरत पे शाम ढलते वो चिराग़ जलाना न भूले 
ताबिशे रूह लरजती है,राहत ओ आराम दूर होने लगे, 

मैंने ख़ुद ब ख़ुद ओढ़ ली है, तीरगी ए फ़रामोश शायद 
लज्ज़ते मुहोब्बत, मरहले शाद, तमाम दूर होने लगे,

इक पल नज़र से दूर न होने की, ज़मानत थी बेमानी 
रफ़्ता रफ़्ता यूँ, ज़िन्दगी से सुबहो शाम दूर होने लगे, 

-- शांतनु सान्याल 

अबहाम - कोहरा 
बाम - पठार
 ताबिश - चमक 
मरहला - वक़्त 
रफ़्ता - धीरे

20 सितंबर, 2011


पथराई आँखों के सपने 

ये मुमकिन न था किसी के लिए यूँ 

दुनिया ही भूला देना, दामन अपना 

हमने ख़ुद ही समेट लिया, रिश्ते वक़्त 

के साथ इक दिन ख़ुद ही सिमट गए,   

ये और बात थी की शमा बुझ के भी 

जलती रही उम्रभर, इंक़लाब उठा था 

हरीक हायल की मानिंद, देखे थे हमने 

मुख्तलिफ़ अल्मशकाल के सपने भी,  

रोटियां, पक्के मकानात, चिलमन से 

झांकते ताज़ारुह मुस्कराहटें, खुशनुमां  

ज़िन्दगी, माँ के आंसुओं में हमने कभी 

देखी थी तैरतीं बूंदों की क़स्तियां, आँचल 

से पोंछते हुए कांपते हाथ,दरवाज़े पे खड़ी

वो तस्वीर, जो अपना ज़ख्म कभी किसी को 

दिखा न सकी, सूनी कलाइयों में पुराने दाग़,    

जो कभी  भर ही न पाए, घर से निकलते हुए 

बहुत चाहा कि इक नज़र देख लें ज़िन्दगी,

लेकिन हर ख्वाहिश की तवील उम्र नहीं 

होतीं, उस आग में झुलसने की जुस्तज़ू थी 

सदीद, जलते रहे रात दिन, मिटते रहे 

लम्हा लम्हा, जब उस क़िले के मीनारों में 

परचम उड़े, हम स्याह कोने पे थे कहीं पड़े,

हमें मालूम ही न चला कब और कैसे 

हम हासिये से निकल ज़मी पे बिखर गए,

उस आग ने शायद उन ख्वाबों को भी जला 

दिया, अब हम ख़ुद से पूछते हैं इंक़लाब ओ 

आज़ादी के मानी, खाख में मिलने का सबब !

तलाशते हैं अपना इक अदद ठिकाना कि

रात है बेरहम, ज़िन्दगी मांगती है अपना 

हिसाब, हमने क्या दिया और किसने क्या 

लौटाया, हमें याद नहीं,  मुद्दत हुए आग पे 

रख कर हाथों पे हाथ, क़सम खाए हुए - 

-- शांतनु सान्याल 

हरीक हायल - जंगल की आग 

अल्मशकाल -Kaleidoscope बहुरूपमूर्तिदर्शी

मुख्तलिफ़ - विभिन्न 

19 सितंबर, 2011

उन्वान जो चाहे दे दो

ज़िन्दगी भी क्या चीज़ है अक्सर 
सोचता हूँ मैं, दोनों जानिब 
हैं रुके रुके  से धूप छाँव
की बस्तियां, दौड़ते दरख़्त 
कँवल भरे झील, रेत  के टीले 
 उदास चेहरों पे बबूल के 
साए, पलकों से गिरते पसीने 
की बूँदें, नंगे बदन बच्चों 
की भीड़, नदी किनारे उठता धुआँ,
कहीं कुछ छूटता नज़र आए 
रेल की रफ़्तार है ओझल, दौड़ 
चलीं हैं परछाइयाँ, उस पुल से क्या 
गुज़रती हैं कभी खुशियों की 
आहटें, जब भी देखा है तुम्हें ख़ामोश
निगाहें, तुम कुछ न कहते हुए 
भी बहुत कुछ कह जाते हो, उन इशारों 
का दर्द घुलता है रात गहराते, 
बेदिली से चाँद का धीरे धीरे सधे
क़दमों से ऊपर उठना, ढलती उम्र में 
जैसे किसी दस्तक की आस हो,   
चेहरे की झाइयाँ करती हैं 
मजबूर वर्ना आइने में रखा क्या है,
ये उम्मीद की लौटेंगी बहारें इक दिन 
वो रोज़ सवेरे दौड़ आता है,
कचनार के झुरमुट पार नदी के 
कगार, इंतज़ार करता है देर तक,
पटरियां हैं मौजूद अपनी जगह, पुल के 
नीचे बहती पहाड़ी नदी, अब सूख
चली है,  महुए की डालियों से झर 
 चले हैं उम्रदराज़ पत्ते, दूर तक उसका 
निशां कोई नहीं, शायद वक़्त का
 फ़रेब है या  अपनी क़िस्मत में मिलना 
लिखा नहीं, मुमकिन हैं उसने 
राहों को मोड़ लिया, ज़िन्दगी उदास लौट 
आती है वहीँ जहाँ किसी ने दी थीं 
ख्वाबों की रंगीन मोमबत्तियां, जो कभी 
जल ही न सकीं, अँधेरे में दिल 
चाहता है तुम्हें छूना महसूस करना, 
सांस लेना, दो पल और जीना --

-- शांतनु सान्याल  
 http://sanyalsduniya2.blogspot.com/

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