हासिये में कहीं
मुझे पृथक, वो तुम्हारी सोच है
वर्ना मन की गहराइयों में
मेरे भी उठते हैं लहर
किनारे की खोज
में दूर तलक, भटकती है ज़िन्दगी -
छूने को क्षितिज रेखा, सुना
है वहीँ कहीं बहती है
कोई नेह नदी,
छुपाये रहस्य गहरे, खनिज से पिघल
कर स्वर्ण होने की प्रक्रिया,
जीवाश्म से जहाँ
निकलते हैं
मोती,
मैं सीप सा खोले वक्ष स्थल, हूँ खड़ा
उसी तटभूमि के करीब, जहाँ
कभी तुमने ली थी सपथ,
रौशनी में ढलने की
अभिलाषा,
किया था हस्ताक्षर उस इच्छापत्र में -
सहर्ष, कहा था - कर लो मुझे
आलिंगनबद्ध अनंत
काल के लिए,
यद्यपि
काल तो गुज़र गए मौसमों के ओढ़ में,
न तुम बन सके मोती, न मैं
बन सका नीलकंठ,
रिक्त शुक्ति
की तरह
बिखरे हैं स्वप्न सभी ज़िन्दगी के तीर,
बेहद सशक्त अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंdil ki gahraaiyon se shukriya vandana ji - naman sah
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