वो चाहते हैं मुझ से मिलना, न जाने किस -
लिए, सुना है उनकी नज़्मों में होता
है ज़िक्र मेरा, दरअसल मेरे घर
के आगे नहीं है कोई नदी,
न ही आकाशगंगा, न
कोई नील पर्वत,
न ही मचलता
समुद्र तीर,
इक
ख़ामोशी है ज़िन्दा दूर तलक, यहाँ कोई
अपना नहीं, यही क्या कम है कि
जी रहा हूँ मैं, ये कोई सपना
नहीं, किसने दिया है
उन्हें ग़लत पता,
ख़ुदा जाने,
उनकी
तलाश है सिमित, लौट जायेगी अपने ही
द्वार से, खिड़कियों से चांदनी होती
है शामिल रोज़ उनके ख़्वाबों
में कहीं, फिर खिलेंगे कुछ
जूही ओ चमेली
रात ढलते,
सुबह
की चम्पई धूप में वो भूल जायेंगे मेरा ख़याल.
--- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.com/
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