10 नवंबर, 2011


क़ुर्बानगाह

फिर वही दस्तूर ज़माना, फिर वही क़ुर्बानगाहों
में लगे हैं मेले, किस से कहे दिल अपनी
वज़ाहत, हर शख्स यहाँ पुरअसरार,
देखे है उसे लानत की तरह,
इनक़लाब डूब चले
सभी उठने से
पहले,
सूरज के तूफ़ान छोड़ पाए न दायरा, उसी ज़मीं
में दहके ज़रूर लेकिन, राख़ से ज़्यादा
 न दे सके वो ज़िन्दगी को, न जाने
किस गिरफ़्त में थे वो लोग,
आंसू बहाए ज़रूर, ज़बां
न खोल पाए,
उतारते
रहे बार बार, सलीब से लहूलुहान ज़िन्दगी को,-
चाबुक के चमक में चीखती रही कहीं
मुहब्बत, तौहीन के डर से लोग
पढ़ते रहे, अनसमझ
किताबें, अज़ाब
का पैबंद
लगा
गए दानिशवर, पहेली से ज़ियादा न थे वो
परछाइयाँ, उभरे आसमां में यूँ
खुबसूरत कमान की
मानिंद, रंग बिखेर
पाते कि घिर
आई
बदलियाँ, फिर वही रात का सन्नाटा मुसलसल.

-- शांतनु सान्याल
Sun_God___Surya_by_DevaShard
قربانگاه

پھر وہی دستور زمانہ، پھر وہی قربانگاهو
میں لگے ہیں میلے، کس سے کہے دل اپنی
وضاحت، ہر شخص یہاں پراسرار،
دیکھے ہے اسے لعنت کی طرح،
انقلاب ڈوب چلے
تمام اٹھنے سے
پہلے،
سورج کے طوفان چھوڑ پائے نہ دائرہ، اسی زمیں
میں دهكے ضرور لیکن، راخ سے زیادہ
  نہ دے سکے وہ زندگی کو، نہ جانے
کس گرفت میں تھے وہ لوگ،
آنسو بہائے ضرور، ذبا
نہ کھول پائے،
اتارتے
رہے بار بار، سليب سے لهولهان زندگی کو، --
چابك کے چمک میں چیکھتی رہی کہیں
محبت، توہین کے ڈر سے لوگ
پڑھتے رہے، انسمجھ
کتابیں، عذاب
کا پےبد
لگا
گئے دانشور، بیت سے زیادہ نہ تھے وہ
پرچھايا، ابھرے آسماں میں یوں
كھبسورت کمان کی
ماند، رنگ بکھیر
پاتے کہ گھر
آئی
بدليا، پھر وہی رات کا سناٹا مسلسل.

شانتنو سانیال 

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