अछूता बचपन
बह न सका, झूलते बरगद के मूल
थामे मैं तकता रहा सांझ का
उदास चेहरा, परिश्रांत,
शिथिल,कोसों
चल कर आता हुआ जीवन तटभूमि छू न
सका, इस वन्य वीथि से हो कर जाती
हैं कुछ पगडंडियाँ, नियति की
रेखाओं की तरह, तिर्यक
कभी समानांतर,
निस्तेज आँखों में डूबती हैं भावी स्वप्नों की
दुनिया, उसने चाहा था शरद की एक
मुट्ठी ज्योत्स्ना, हेमंती धूप की
कुछ परतें, शेमल की
उड़तीं रेशमी रुई,
सभी ने कहीं न कहीं ऊँचाइयों को छू लिया,
वो कुछ भी हो न सका, सुबह शाम
एकटक देखता है वो लौटते
हुए उजले परिधानों में
सजे कुलीन बच्चे,
मुस्कराते हुए पालकों का आलिंगन, बड़े
जतन से थामे हुए मज़बूत हाथ,
ख़ुद को पाता है इन्हीं भीड़
का हिस्सा, लेकिन
कहीं कोई शून्यता उसे लौटा लाती है, वहीँ
जहाँ से कोई भी राह निकलती नहीं,
आद्र आँखों से वो देखता है नदी
का कटाव, धंसते किनारे
बड़े ध्यान से वो पोंछता है रेस्तरां के मेज़
भाग्य की परछाई जो कभी उभर
ही न सकी, जीवन ठहरता
कहाँ है छूटते बचपन
के लिए,
-- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.com/
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