ज़िन्दगी भी क्या चीज़ है अक्सर
सोचता हूँ मैं, दोनों जानिब
हैं रुके रुके से धूप छाँव
की बस्तियां, दौड़ते दरख़्त
कँवल भरे झील, रेत के टीले
उदास चेहरों पे बबूल के
साए, पलकों से गिरते पसीने
की बूँदें, नंगे बदन बच्चों
की भीड़, नदी किनारे उठता धुआँ,
कहीं कुछ छूटता नज़र आए
रेल की रफ़्तार है ओझल, दौड़
चलीं हैं परछाइयाँ, उस पुल से क्या
गुज़रती हैं कभी खुशियों की
आहटें, जब भी देखा है तुम्हें ख़ामोश
निगाहें, तुम कुछ न कहते हुए
भी बहुत कुछ कह जाते हो, उन इशारों
का दर्द घुलता है रात गहराते,
बेदिली से चाँद का धीरे धीरे सधे
क़दमों से ऊपर उठना, ढलती उम्र में
जैसे किसी दस्तक की आस हो,
चेहरे की झाइयाँ करती हैं
मजबूर वर्ना आइने में रखा क्या है,
ये उम्मीद की लौटेंगी बहारें इक दिन
वो रोज़ सवेरे दौड़ आता है,
कचनार के झुरमुट पार नदी के
कगार, इंतज़ार करता है देर तक,
पटरियां हैं मौजूद अपनी जगह, पुल के
नीचे बहती पहाड़ी नदी, अब सूख
चली है, महुए की डालियों से झर
चले हैं उम्रदराज़ पत्ते, दूर तक उसका
निशां कोई नहीं, शायद वक़्त का
फ़रेब है या अपनी क़िस्मत में मिलना
लिखा नहीं, मुमकिन हैं उसने
राहों को मोड़ लिया, ज़िन्दगी उदास लौट
आती है वहीँ जहाँ किसी ने दी थीं
ख्वाबों की रंगीन मोमबत्तियां, जो कभी
जल ही न सकीं, अँधेरे में दिल
चाहता है तुम्हें छूना महसूस करना,
सांस लेना, दो पल और जीना --
शान्याल सर
जवाब देंहटाएंनमस्कार ! आप बहुत बढ़िया कविता लिखते हैं. हिंदी और अंग्रेजी दोनों में. वर्तमान कविता आज के समय पर करार कटाक्ष करती हुई है बहुत बढ़िया कविता.
अरुण जी बहुत बहुत धन्यवाद, जब कभी कोई कविता के मर्म को छूता है, अपना ही एक हिस्सा नज़र आता है, यही अहसास नए आयामों की तरफ ले जाता है, नमन सह
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