बिहान पुनः मुस्कुराये
निस्तब्ध झील से उठ कर नीली घाटियों
में कहीं, अनन्य कुसुमित वीथी
जहाँ हो प्रतीक्षारत,
स्वरचित अग्निवलय- परिधि से बाहर उभरते
हैं, रश्मि पुंज, जीवन रचता है जहाँ
नई परिभाषाएं, उच्छ्वास से
झरते हैं सुरभित
अभिलाष, कभी तो देख मुक्त वातायन पार की
पृथ्वी, क्षितिज देता है रंगीन आवाज़,
साँझ उतरती है वन तुलसी के
गंध लिए, देह बने
सांध्य प्रदीप, हों तिमिर, प्रदीप्त पलकों तले,
रात रचे फिर जीने की सम्भावना
स्वप्न हों मुकुलित दोबारा
बिहान फिर मुस्कुराये.
-- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.com/
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बहुत सुन्दर प्रस्तुति।माता रानी आपकी सभी मनोकामनाये पूर्ण करें और अपनी भक्ति और शक्ति से आपके ह्रदय मे अपनी ज्योति जगायें…………सबके लिये नवरात्रि शुभ हों
जवाब देंहटाएंधन्यवाद वंदना जी - नमन सह
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