18 सितंबर, 2011

नज़्म - - जीने की आरज़ू,


आसमां की थीं शायद मजबूरियां
नजम टूट कर बिखरते रहे 
ज़मीं के थे अपने ही  
मंतक़, जो चाह कर भी अपना न 
सकी सिमटती नूरे जरयां
हर इक सांस में था 
ख़ुदा, हर क़दम 
पे जीने की आरज़ू, बेअसर रहीं न 
जाने क्यूँ अपना बनाने की 
अदा, हर इक बात पे न 
कहो कि लिल्लाह की 
मर्ज़ी, उसी ने कहा था मुझे कि मिलूं 
मैं तुमसे मस्जिद के साए 
मंदिर की सीड़ियों में 
कहीं, तपते धूप में, सर्द चाँद रातों में,
मिले भी तुम मगर अजनबी की 
तरह, पूछते रहे लहू का रंग 
जीने की अहमियत 
बिखरने का 
मक़ाम, हज़ारों सवालात, दे न सका 
कोई माक़ूल जवाब, अपनी ये 
शख्सीयत लिए लौट चला 
मैं गुमशुदा क़ब्रगाहों
के क़रीब, जहाँ फिज़ाओं में है पुरसुकून 
ख़ामोशी, अपनापन, ज़िन्दगी 
यहीं कहीं करती है तलाश 
सितारों के टूटने की 
वजह, इश्क़िया लोगों के मक़बरे, रूहों की 
सरज़मीं, रात ढलते जहाँ लगते हैं 
सूफ़ियों  के मेले, अक़ीदत यहाँ 
है ग़ैरमानी, शर्त हैं सभी 
सिर्फ़ इंसानी !

-- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.com/
  अर्थ -  
  नजम - तारा 
 मंतक़ - तर्क 
नूरे जरयां - रौशनी का प्रवाह 
सूफ़ी - रहस्यमय 
अक़ीदत  - श्रद्धा 
माक़ूल - सही  

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