भीगी शाम की तरह कभी तो आ ज़िन्दगी,
उदास लम्हात को यूँ फिर सजा ज़िन्दगी.
वो सभी ख़ुश्बुओं के दायरे घुल चले स्वतः
नीली नूर में धुली कोई आग जला ज़िन्दगी,
फिर उन आँखों में देखी है जीवन की उमंग,
साँसों को इकबार यकीं फिर दिला ज़िन्दगी,
रुके रुके से हैं, फूलों के मौसम न जाने क्यूँ
व्यथित चेहरों में गुल फिर खिला ज़िन्दगी,
कौन है जो, मासूम दिलों से खेलता है बारहा
न उठे दोबारा उन्हें मिट्टी में मिला ज़िन्दगी,
ये फिज़ाएं पुकारती हैं अमन के परिंदों को
फिर कहीं से मुहोब्बत को ले आ ज़िन्दगी,
--- शांतनु सान्याल
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