अदृष्ट प्रदीप, मातृ सम प्रज्वलित तब अंतःकरण, सभी दिशाएं जब हों
अंधकारमय, मकड़ जाल में
समय चक्र, जीवन
प्रवाह तब मांगे
भवसिंधु का
गहन शरण,
अदृष्ट
प्रदीप, मातृ सम तब प्रज्वलित अंतः
करण । पाषाण प्रतिमा बन जाए
ईश जब हम भिक्षु सम फैलाएं
हाथ, मंदिर के बाहर पांव
रखते ही बढ़े अनेकों
हाथ तब तुम हो
ईश्वर का ही
एक अन्य
रूप,
ये और बात है कि हम में कितना अंश
है ईश्वरीय अवतरण, अदृष्ट प्रदीप,
मातृ सम प्रज्वलित तब
अंतःकरण ।
- - शांतनु सान्याल
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में रविवार 14 सितंबर 2025 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबेहतरीन
जवाब देंहटाएंदीपज्योति : नमस्तुभ्यं । नमस्ते।
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