रात गहराते ही चाँद उतरता है सहमे सहमे नदी के स्थिर वक्षःस्थल में, जी उठते
हैं उन पलों में तमाम मृतप्रायः
भावनाएं, निशाचर विहग
की मायावी आवाज़
में गूँजती है सृष्टि,
अहम् कः
अस्मि ?
मम
गन्तव्यं कुत्रास्ति ? हम ख़ुद को पाते हैं एक
अंतहीन मरुस्थल में, रात गहराते ही
चाँद उतरता है सहमे सहमे नदी
के स्थिर वक्षःस्थल में ।
स्वप्निल वृक्षों में
झूलते से
नज़र
आते हैं दीर्घ समय तक जीने की अभिलाषा,
कुछ रेशमी धागों से बंधे हुए मनौती के
मायावी गांठ, अपरिसीम चाहतों
के रंगीन बुलबुले, हम भरना
चाहते हैं अपनी बांहों में
सारा आसमान, भूल
जाते हैं क्षणिक
आवेश में
अपना
अस्तित्व, हम से छूट जाता है शाश्वत प्रेम
बस भटकते रह जाते हैं देह के अंदर
महल में, रात गहराते ही चाँद
उतरता है सहमे सहमे
नदी के स्थिर
वक्षःस्थल
में ।
- - शांतनु सान्याल
Very Nice Post...
जवाब देंहटाएंWelcome to my new post