आधी रात, उतार फेंकी है तमाम मुखौटे, आईना में उभर चले हैं गहरे ज़ख्मों
के निशान, अनुबोध का अनुक्रम
है जारी अक्स ओ चेहरे के
दरमियान । सिलवटों
को संवारते हुए
देह करता
है नींद
का
आवाहन, खुली आँखों के ऊपर उड़ते
हैं रंगीन तितलियां, अपनी बाहों
में समेटने को है आतुर मेघ -
विहीन आसमान,
अनुबोध का
अनुक्रम
है जारी
अक्स ओ चेहरे के दरमियान ।
हम देखते रहते हैं अंकीय समय
जाने कितनी बार, पहलू
बदलता रहता है
अपनी जगह
कोहरे में
डूबा
हुआ निविड़ अंधकार, अभी बहुत दूर
है दिगंत अधर, खिली चाँदनी में
अतृप्त प्राणों को कर लेने दो
मुक्तिस्नान, अनुबोध
हम देखते रहते हैं अंकीय समय
जाने कितनी बार, पहलू
बदलता रहता है
अपनी जगह
कोहरे में
डूबा
हुआ निविड़ अंधकार, अभी बहुत दूर
है दिगंत अधर, खिली चाँदनी में
अतृप्त प्राणों को कर लेने दो
मुक्तिस्नान, अनुबोध
का अनुक्रम है
जारी अक्स
जारी अक्स
ओ चेहरे
के
दरमियान ।
- - शांतनु सान्याल
दरमियान ।
- - शांतनु सान्याल
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में शनिवार 13 सितंबर 2025 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना
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