उसका आना ग़ैर मुन्तज़िर बारिश था, या
पोशीदा पेशगोई, तूफां से पहले, शाम
सहमी सी रही देर तक उसके
जाने के बाद, ज़िन्दगी
देखती रही उफ़क़
पे बुझते
हुई इक लकीर ए आतिश, इक सन्नाटा
पुरअसर छू सा गया अंदरूनी वजूद,
रात की अपनी है मजबूरी,
निजात कहाँ तीरगी
से, चाँद निकले
न निकले,
फिर हम जलाए जाते हैं दिल के फ़ानूस,
कहीं खो न जाए उसकी मुहोब्बत
स्याह राहों में दोबारा - -
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- शांतनु सान्याल
बहुत सुन्दर प्रस्तुति..!
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शस्य श्यामला धरा बनाओ।
भूमि में पौधे उपजाओ!
अपनी प्यारी धरा बचाओ!
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पृथ्वी दिवस की बधाई हो...!
बहुत खूब ...
जवाब देंहटाएंthanks a lot respected friends - -
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