18 अप्रैल, 2013

फ़रेब दिलकश - -

अब इस दूरबीन ए अहसास के मानी कुछ 
भी नहीं, कि वो शख्स है ओझल !
वक़्त का कोहरा, था बहोत 
गहरा, बारहा लौट 
आई आवाज़ 
मेरी,
दूर तक जा कर, वादियों का रव्वैया भी न 
रहा मुनासिब, मौसम के साथ बदल 
से गए बाज़गश्त सदाएं ! ये 
ख़ामोशी हैं शायद 
शरीक ए 
सफ़र 
अपना, हर हाल में घेरे रहता है वजूद के 
अन्दर बाहर, चलो हमने भी कर 
ली इक पैमां ज़िन्दगी से,
कि वक़्त के आईने 
में अपना 
अक्स, 
कम से कम न करे, यूँ फ़रेब दिलकश !
* * 
- शांतनु सान्याल 
depth of reflection 

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