इक इंतज़ार अंतहीन, तरबतर जिस्म
ओ जां मगर, ज़िन्दगी है या कोई
बियाबां बिखरा दूर तलक !
उस मोड़ पर अक्सर
खोजता है, ये
मुस्ताक़
ज़मीर, जहाँ वजूद को मिले इक मुश्त
राहत ए तिश्नगी, ख़्वाबों को मिले
इक क़तअ हक़ीक़त की
ज़मीं ! हमसफ़र
कोई आरज़ी,
या कोई
गुमशुदा राही, मिल जाए रात ढलने
से पहले, कि उफ़क़ पे आज
भी रुके रुके से हैं कुछ
क़ाफ़िले मुहोब्बत
के बेक़रार !
* *
- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.com/
alone waiting
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें