दुनिया की वही दायमी नुक़्तह नज़र, अन्दर 
कुछ और बाहर कुछ, अपनी भी वही 
अलग मजबूरी, हर वक़्त 
आमदा बा सिम्त 
इन्क़लाब,
फिर 
ज़माने की वही दलील किताबी, असलियत 
से कोसों दूर, अपना वजूद फिर तनहा 
राह ए संगसार की जानिब, हर 
चेहरा काज़ब, लिए हाथों 
में इंसाफ़ ए शलाक़,
अपनी तक़दीर 
में फिर 
सज़ा ए इंसानियत मुक़रर, दुनिया की है 
अपनी ही, इक तरजीह फ़ेहरिस्त, 
बहोत पुरानी, लेकिन अपना 
नज़रिया लीक से हट 
कर, आप कह 
लें जो 
चाहे, ज़हर ए असलियत या फिर ज़मीर 
ए अमृत, ये आप पर है मनहसर !
* * 
- शांतनु सान्याल 
अर्थ - 
दायमी नुक़्तह नज़र - स्थायी दृष्टिकोण 
आमदा बा सिम्त इन्क़लाब - क्रांति की तरफ बढ़ना 
काज़ब - छद्म 
शलाक़ - कोड़ा
 मनहसर - निर्भर 

बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुतीकरण,आभार.
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भूली-बिसरी यादें
वेब मीडिया
"ब्लॉग कलश"
"स्वस्थ जीवन: Healthy life"
बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
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इंजीनियर प्रदीप कुमार साहनी अभी कुछ दिनों के लिए व्यस्त है। इसलिए आज मेरी पसंद के लिंकों में आपका लिंक भी चर्चा मंच पर सम्मिलित किया जा रहा है और आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल बुधवार (03-04-2013) के “शून्य में संसार है” (चर्चा मंच-1203) पर भी होगी!
सूचनार्थ...सादर..!
असंख्य धन्यवाद, मान्यवर मित्रों - - नमन सह
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