अनाहूत वृष्टि की तरह खिली धूप में कभी -
वो जाता है बरस, देह और प्राण से
होकर, उस क्षणिक अनुभूति
में है जीवन निहित, भर
जाता है ज्यों तृषित
मरू प्रांतर,
उस प्रणयगंध में है पावन आभास समाहित,
पारदर्शी झील के वक्ष - स्थल में हो,
जैसे उन्मुक्त नभ परिभाषित,
वो भाव जो बिखर जाए
केशर की फूलों की
तरह कोर कोर,
वो नेह बंध
जो जुड़ जाए चहुँ दिश चहुँ ओर, निःश्वास
से उठ कर जा पहुंचे नयन कोण,
आर्द्र दृष्टि में हो जब मर्म
उजागर, तब जीवन
अर्थ हो प्रदीप्त,
स्व बिम्ब
जब उभरे किसी व्यथित ह्रदय के दर्पण में,
पाए जीवन अतिआनंद तब सर्व
समर्पण में - -
- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.com/
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