वादियों में फिर बिखरी है नाज़ुक धूप,
या उन निगाहों से ज़ाहिर है हर
सिम्त ज़िन्दगी, फिर उठ
चली है संदली ख़ुश्बू,
जिस्म ओ जां
पे है इक
पुर असर अंदाज़ या छाया हुआ कोई
शाज़ ए अंजाम, हर जानिब एक
ही बहस, उनकी जुस्तजू
उनका इंतज़ार, हर
शख्स के चेहरे
में हो जैसे
बेइन्तहा तलाश, हर तरफ़ उसकी है -
सल्तनत, फिर भी नहीं वो नज़र
के आसपास - -
- शांतनु सान्याल
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बहुत ही उमदा भावमय ... लाजवाब ...
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