ज़ख्मों का हिसाब न पूछ मजरूह ज़िन्दगी से,
बमुश्किल संभला है मेरा वजूद तबाही के बाद,
अभी तलक हैं ख़राश, ज़मीर की गहराइयों में,
बाक़ी कुछ भी न रहा, वक़्त की गवाही के बाद,
हूँ क़ैद अपने आप में इस क़दर, शब ओ रोज़ -
खौफ़ नहीं किसी से अब ग़म ए स्याही के बाद,
रग रग में बह चले हैं ज़हर बुझे तीरों के असर
लज्ज़ते ज़िन्दगी बढ गई है आवाजाही के बाद,
दिन ब दिन बढ़ने लगी है,प्यास कुछ ज़ियादा -
दीवानगी ख़ुलेआम, बारहा यूँ मनाही के बाद ,
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