23 सितंबर, 2025

दृश्य के परे - -

दृश्य से परे कुछ भी न था शून्य के सिवाय,

नदी के उस पार था परछाइयों का
शहर, कुछ यादों के झुरमुट,
तथाकथित अस्थायी
पता ठिकाना,
कुछ रिक्त
पक्षियों
के
झूलते हुए नीड़, सूखे बबूल के दरख़्त, कभी सब
कुछ था वहाँ हृदय मूल्य के
सिवाय, दृश्य से परे कुछ भी न
था शून्य के सिवाय । एक
लम्बी सी यात्रा थी
शैशव से लेकर
वृद्धाश्रम
तक
जो सिमट कर रह गई निगाह के बियाबां में
आ कर, उस बिंदु में अब बरसात नहीं
होती, उसे ख़बर है इस ऊसर
भूमि की ओर कोई रास्ता
नहीं आता, फिर भला
किसी का इंतज़ार
कैसा, दूर तक
है धुंध ही
धुंध,
इस मोड़ के आगे कुछ भी नहीं सघन अरण्य
के सिवाय, दृश्य से परे कुछ भी न था
शून्य के सिवाय ।
- - शांतनु सान्याल

21 सितंबर, 2025

अंतः अस्ति प्रारंभः

आख़री बिंदु पर आ कर भी ज़िन्दगी

नहीं रुकनी चाहिए, उसी बिंदु से
होती है नई शुरुआत, लोगों
का है अपना अलग
नज़रिया, हर के
नज़र से ख़ुद
को नहीं
बदला
जा
सकता, दरसअल लोगों को ख़ुश रखने
की कोशिश में हम भूल जाते हैं
बिम्ब अपना, बस वहीं से
होता है मानसिक
अपघात,
आख़री बिंदु पर आ कर भी ज़िन्दगी
नहीं रुकनी चाहिए, उसी बिंदु से
होती है नई शुरुआत ।
तमाम उम्र साथ
रहने के बाद
भी लोग
एक
दूजे से रहते हैं अनजान, न जाने कितने
बार हम करते हैं दुःख दर्द साझा,
फिर भी नहीं हो पाती गहरी
पहचान, रस्म अदायगी
से अधिक नहीं बढ़
पाती दिल की
बात, आख़री
बिंदु पर

कर भी ज़िन्दगी नहीं रुकनी चाहिए,
उसी बिंदु से होती है नई
शुरुआत - -
- - शांतनु सान्याल


18 सितंबर, 2025

प्रतीक्षा - -

लटके रहो उलटे मेरूदंड के साथ जतुका

की तरह, निःशब्द इंतज़ार करते हुए
सूरज डूबने का, अभी क्षितिज
पर बिखरे हुए हैं रक्तिम
मेघ के टुकड़े, ज़रा
बिखरने दो वन्य
गंध अरण्य
वीथि
में, चुप रहो इतना कि किसी को भी पता
न चले तुम्हारे उड़ने का, निःशब्द
इंतज़ार करते हुए सूरज डूबने
का । दर्पण जानता है सब
कुछ, तुम्हारे चेहरे के
परतों का रहस्य,
डिम्ब से फूट
कर पूर्ण
सरीसृप
बनने
तक का अध्याय, क्रमशः धुंधले हो चले
हैं सभी गेरुआ वसन, बस यही है
वक़्त निर्बल को निगलने का,
निःशब्द इंतज़ार करते
हुए सूरज डूबने
का । मर
चुका
है बरसों का कोलाहल, मृतपिण्ड पर है
केवल शब्दहीन कंपन, असमाप्त
मूक क्रंदन, आकाशमुखी
अट्टालिकाओं में चल
रहा है नग्न नर्तन,
पगडंडियों में
कहीं पड़े
हुए हैं
टूटे फूटे अनगिनत चेहरे, तलाशते हुए
एक रास्ता जीने का, निःशब्द
इंतज़ार करते हुए सूरज
निकलने का ।
- - शांतनु सान्याल

17 सितंबर, 2025

माटी का संग्रहालय - -

कोई भी इस जगत में शत प्रतिशत

अनवद्य नहीं, मृत्पिंडों से
निर्मित है देह का
संग्रहालय,
कुछ न
कुछ
कमी रह जाती है शिल्प की रचना में,
अंतरतम का सौंदर्य ही रहता है
शाश्वत, सुंदरता उभरती है
तभी जब हृदय बने
उन्मुक्त देवालय,
मृत्पिंडों से
निर्मित है
देह का
संग्रहालय । अश्वत्थ वृक्ष बने जीवन,
सत्पथ में बढ़े भावनाओं की हरित
शाखाएं, ऊपर में हो पक्षियों
का रैन बसेरा, परछाई
में बसे क्लांत
पथिकों
का
डेरा, सब कुछ अपने अंदर समाहित
क्या श्मशान क्या शिवालय,
मृत्पिंडों से निर्मित है
देह का
संग्रहालय ।
- - शांतनु सान्याल


14 सितंबर, 2025

जल शब्द - -

अनुबंध था जल शब्द की तरह अथाह

गहराई में विलीन हो जाना, सजल
अंधकार को देह में लपेटे गहन
प्रणय के लिए अंध मीन हो
जाना, चाहतों के तरंग
थे कल्पना के परे,
संग रहने की
अवधि
रही
सीमित, सोचने समझने में ही समय गुज़र
गया, मुश्किल था किसी एक पर सब
कुछ त्याग कर तल्लीन हो जाना,
अनुबंध था जल शब्द की
तरह अथाह गहराई
में विलीन हो
जाना ।
उम्र
अपना असर छोड़ती है हर एक क़दम पर,
जीर्ण पत्तों का एक दिन धरा के अंक
में बिखरना है निश्चित, मौसमी
हवाओं के साथ ज़िन्दगी
खेलती है आँख -
मिचौली, जो
दरख़्त
आज
है फूलों से गुलज़ार, उसे भी एक दिन है
श्रृंगार विहीन हो जाना, अनुबंध था
जल शब्द की तरह अथाह
गहराई में विलीन
हो जाना ।
- - शांतनु सान्याल






13 सितंबर, 2025

डूबने से पहले - -

रात गहराते ही चाँद उतरता है सहमे सहमे

नदी के स्थिर वक्षःस्थल में, जी उठते
हैं उन पलों में तमाम मृतप्रायः
भावनाएं, निशाचर विहग
की मायावी आवाज़
में गूँजती है सृष्टि,
अहम् कः
अस्मि ?
मम 
गन्तव्यं कुत्रास्ति ? हम ख़ुद को पाते हैं एक
अंतहीन मरुस्थल में, रात गहराते ही
चाँद उतरता है सहमे सहमे नदी
के स्थिर वक्षःस्थल में ।
स्वप्निल वृक्षों में
झूलते से
नज़र
आते हैं दीर्घ समय तक जीने की अभिलाषा,
कुछ रेशमी धागों से बंधे हुए मनौती के
मायावी गांठ, अपरिसीम चाहतों
के रंगीन बुलबुले, हम भरना
चाहते हैं अपनी बांहों में
सारा आसमान, भूल
जाते हैं क्षणिक
आवेश में
अपना
अस्तित्व, हम से छूट जाता है शाश्वत प्रेम
बस भटकते रह जाते हैं देह के अंदर
महल में, रात गहराते ही चाँद
उतरता है सहमे सहमे
नदी के स्थिर
वक्षःस्थल
में ।
- - शांतनु सान्याल 

11 सितंबर, 2025

तयशुदा सौगात - -

जहां ख़तम हो जाए बातों का ज़ख़ीरा, वहीं

से होता है शुरू ख़ुद से गुफ़्तगू का
सिलसिला, ज़िन्दगी के
मुख़्तलिफ़ मोड़
पर मिलते
रहे न
जाने कितने चेहरे कुछ उजागर, कुछ धुंध
में छुपे हुए, अँधेरे उजाले का अंतहीन
खेल चलता रहता है यथावत,
किसे ख़बर कहाँ पर है
मौजूद पुरसुकून
का मरहला,
वहीं से
होता है शुरू ख़ुद से गुफ़्तगू का सिलसिला ।
अहाते की धूप रहती है मुख़्तसर वक़्त
के लिए, कुछ गुलाब की तक़दीर
में रहता है खुल कर मुस्काने
की वसीयत, कुछ झर
जाते हैं बिन खिले
ही शाम ढलने
से पहले,
अपने
अपने हिस्से का तयशुदा पुरस्कार मिला,
वहीं से होता है शुरू ख़ुद से
गुफ़्तगू का सिलसिला ।
- - शांतनु सान्याल

अनुबोध - -

आधी रात, उतार फेंकी है तमाम मुखौटे,

आईना में उभर चले हैं गहरे ज़ख्मों
के निशान, अनुबोध का अनुक्रम
है जारी अक्स ओ चेहरे के
दरमियान । सिलवटों
को संवारते हुए
देह करता
है नींद
का
आवाहन, खुली आँखों के ऊपर उड़ते
हैं रंगीन तितलियां, अपनी बाहों
में समेटने को है आतुर मेघ -
विहीन आसमान,
अनुबोध का
अनुक्रम
है जारी 
अक्स ओ चेहरे के दरमियान ।
हम देखते रहते हैं अंकीय समय
जाने कितनी बार, पहलू
बदलता रहता है
अपनी जगह
कोहरे में
डूबा
हुआ निविड़ अंधकार, अभी बहुत दूर
है दिगंत अधर, खिली चाँदनी में
अतृप्त प्राणों को कर लेने दो
मुक्तिस्नान, अनुबोध 
का अनुक्रम है
जारी अक्स 
ओ चेहरे 
के
दरमियान ।
- - शांतनु सान्याल


09 सितंबर, 2025

देहांतरण - -

अदृष्ट प्रदीप, मातृ सम प्रज्वलित तब

अंतःकरण, सभी दिशाएं जब हों
अंधकारमय, मकड़ जाल में
समय चक्र, जीवन
प्रवाह तब मांगे
भवसिंधु का
गहन शरण,
अदृष्ट
प्रदीप, मातृ सम तब प्रज्वलित अंतः
करण । पाषाण प्रतिमा बन जाए
ईश जब हम भिक्षु सम फैलाएं
हाथ, मंदिर के बाहर पांव
रखते ही बढ़े अनेकों
हाथ तब तुम हो
ईश्वर का ही
एक अन्य
रूप,
ये और बात है कि हम में कितना अंश
है ईश्वरीय अवतरण, अदृष्ट प्रदीप,
मातृ सम प्रज्वलित तब
अंतःकरण ।
- - शांतनु सान्याल


06 सितंबर, 2025

ग़ज़ल - -

उम्रदराज़ किताब की अब कोई ज़मानत नहीं,

सफ़ा टूट कर फिर जुड़ जाएं ऐसी हालत नहीं,

जाने क्यूं वो आज भी तकता है बड़ी चाहत से,
कैसे बताऊं कि मेरे पास उसकी अमानत नहीं,

ज़िन्दगी निचोड़ लेती है अपने ढंग से सब कुछ,  उजड़े हुए शहर में, आने की अब इजाज़त नहीं,

चौक में मजमा सा लगा है मुखौटे की दुकां पर,
जिसे दिल में उतार लें वो ख़ास शख़्सियत नहीं,

शाह राह के दोनों बाजू सज चले हैं मीनाबाज़ार,
फिर कभी मिलेंगे बियाबां में आज तबियत नहीं,

तमाम उम्र गुज़रे हैं, इन्हीं सुलगते तंग गलियों से,
ख़्वाब की वादियों में जाएं अब ऐसी हसरत नहीं,
- - शांतनु सान्याल





05 सितंबर, 2025

शाश्वत मशाल - -

इतिकथाओं के पृष्ठों से उतरता है समय

देह में उकेरे हुए ज़ंजीरों के निशान,
पुकारते हैं अदृश्य महामानव
आग्नेय शब्दों में विस्मृत
स्वाधीनता के गान,
भग्न देवालयों
के गर्भ -
गृहों
में आज भी प्रज्वलित हैं शाश्वत मशाल,
सम्प्रति युग में भी हैं सक्रिय वही बर्बर
कौरवों के सन्तान, इतिकथाओं
के पृष्ठों से उतरता है समय
देह में उकेरे हुए ज़ंजीरों
के निशान । आओ
कि पुनः हम
संस्कृति
को
बचाने का लें संकल्प, सभी विषमताओं
को भूल कर रचें एक अद्वितीय वास -
स्थान, जहां हर एक व्यक्ति को
मिले न्यायोचित सन्मान,
देश बने पथ प्रदर्शक
विश्वगुरु महान,
पुकारते हैं
अदृश्य
महामानव आग्नेय शब्दों में विस्मृत
स्वाधीनता के गान ।।
- - शांतनु सान्याल

04 सितंबर, 2025

उस मोड़ पर कहीं - -

नदी जिस हँसली मोड़ पर छोड़ जाती है

रेत का ढलान, उसी बंजर जगह पर
बिखरे पड़े रहते हैं निःसंगता के
शून्य स्थान, सुख दुःख के
प्रश्नोत्तरी में ज़िन्दगी
ढूंढती है संधि
काल, हर
एक
प्रश्न का उत्तर नहीं दे पाता दर्पण का
वेताल, समय स्रोत सदैव रहता
है चलायमान, बंजर जगह
पर बिखरे पड़े रहते हैं
निःसंगता के शून्य
स्थान । सात
जनमों का
संग नहीं
सहज
इसी
जगह पर एक दिन एकाकी है सुलगना,
इसी स्थान पर रह जाएंगे कुछ एक
पदचिन्हों के अभिलेख, कुछ
मिट जाएंगे सदा के लिए,
चलता रहेगा क्रमशः
डूबना और
उभरना,
कुछ
आवाज़ प्रतिध्वनित हो लौट आएंगे कुछ
हो जाएंगे शब्दहीन बियाबान, बंजर
जगह पर बिखरे पड़े रहते हैं
निःसंगता के शून्य
स्थान ।
- - शांतनु सान्याल

02 सितंबर, 2025

असलियत - -

अक्सर हम भूल जाते हैं ख़ुद की अहमियत,

किसी और की नज़रों में ढूंढते हैं अक्स
अपना, मुमकिन नहीं हर किसी को
ख़ुश करना, हर शै ज़रूरी नहीं
बन जाए घरेलू, कई बार
फ़ीकी पड़ जाती
है मुद्दतों की
तरबियत,
अक्सर
हम भूल जाते हैं ख़ुद की अहमियत । हज़ार
परतों में ढके रहते हैं ख़्वाहिशों के बीज,
बस कुछेक को नसीब होती है उगते
सूरज की झलक, कुछ उभर कर
जी जाते हैं लंबी उमर, कुछ
दम तोड़ जाते ज़मीं के
अंदर, ज़िन्दगी का
फ़लसफ़ा चाहे
जो भी हो,
हर हाल
में हमें
तै करना होता है ज़िन्दगी का सफ़र, जीना
चाहते हैं हर एक पल, चाहे कुछ भी
हो मौत की असलियत, अक्सर
हम भूल जाते हैं ख़ुद
की अहमियत ।
- - शांतनु सान्याल 

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past