उस संकुचित परिधि के बाहर
भी है एक विशाल दुनिया,
कभी स्वयं से बाहर
निकल कर
तो देखें,
प्रतिबिंबित किरणों का दोष -
कुछ भी न था, अनुकूल
बीज ही थे अंकुरित
पौधे, प्रकृत -
सत्य
को झुठलाना नहीं सहज, ये
उभरती है अदृश्य
शक्तियों के
साथ
अप्रत्याशित रूप से, तमाम -
बही ख़ाते रहे शून्य
अंत में, टूटते
तारे को
को न थाम पाया, वो विस्तीर्ण
नील आकाश - -
* *
- शांतनु सान्याल
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भी है एक विशाल दुनिया,
कभी स्वयं से बाहर
निकल कर
तो देखें,
प्रतिबिंबित किरणों का दोष -
कुछ भी न था, अनुकूल
बीज ही थे अंकुरित
पौधे, प्रकृत -
सत्य
को झुठलाना नहीं सहज, ये
उभरती है अदृश्य
शक्तियों के
साथ
अप्रत्याशित रूप से, तमाम -
बही ख़ाते रहे शून्य
अंत में, टूटते
तारे को
को न थाम पाया, वो विस्तीर्ण
नील आकाश - -
* *
- शांतनु सान्याल
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