हर इक ज़िद्द पे तुम्हारी, ज़िन्दगी ये बेचारी, -
ख़ामोश जां निसार होती रही, कभी वो
ख्वाहिश जिसमें, मेरे ज़ख्मों को
को था सुलगना, कभी वो
चाहत जिसके लिए
निगाहों से
टपके
बुझे अंगारे, वो तुम्हारे दिल की हसरत जिसमें
थीं, दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत अमानत,
वो कोई नादिर शीशा था, या कोई
आईना ए फ़रेब, अक्सर
तन्हा सोचता है
वजूद मेरा,
क्या
चीज़ थी जिसने मुझे दीवानगी के हदों से कहीं
आगे ले गई, जहाँ जिस्म ओ रूह के
दरमियां फ़ासला, महज़ कुछ
लम्हों में हो तक़सीम,
तुम्हारी उनींदी
नाज़ुक
पलकें, और मेरी साँसों के लिए, फ़ैसले की वो
आख़री शब, ये इश्क़ था तुम्हारा या
आज़माइश बा ज़िन्दगी ! अब
जबकि बुझ चुकी है शमा,
इन बिखरे परों
में कहाँ है
मेरा अक्स झुलसा हुआ, और कहाँ है तुम्हारी
निगाहों की संदली साया, कहना आसान
कहाँ, दूर तक है सिर्फ़ धुंध गहराता,
मुसलसल इक बेइंतहा
तन्हाई - -
* *
- शांतनु सान्याल
ख़ामोश जां निसार होती रही, कभी वो
ख्वाहिश जिसमें, मेरे ज़ख्मों को
को था सुलगना, कभी वो
चाहत जिसके लिए
निगाहों से
टपके
बुझे अंगारे, वो तुम्हारे दिल की हसरत जिसमें
थीं, दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत अमानत,
वो कोई नादिर शीशा था, या कोई
आईना ए फ़रेब, अक्सर
तन्हा सोचता है
वजूद मेरा,
क्या
चीज़ थी जिसने मुझे दीवानगी के हदों से कहीं
आगे ले गई, जहाँ जिस्म ओ रूह के
दरमियां फ़ासला, महज़ कुछ
लम्हों में हो तक़सीम,
तुम्हारी उनींदी
नाज़ुक
पलकें, और मेरी साँसों के लिए, फ़ैसले की वो
आख़री शब, ये इश्क़ था तुम्हारा या
आज़माइश बा ज़िन्दगी ! अब
जबकि बुझ चुकी है शमा,
इन बिखरे परों
में कहाँ है
मेरा अक्स झुलसा हुआ, और कहाँ है तुम्हारी
निगाहों की संदली साया, कहना आसान
कहाँ, दूर तक है सिर्फ़ धुंध गहराता,
मुसलसल इक बेइंतहा
तन्हाई - -
* *
- शांतनु सान्याल
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