16 जुलाई, 2011

नज़्म - - तर्क़ब नज़र

न देख फिर मुझे तर्क़ब नज़र से यूँ
मजरूह जिस्म, दर्दे शख्सियत ले,
किस तरह से तेरी मुहोब्बत क़ुबूल
करूँ, कि ये खुशफ़हमी न दे जाये -
कहीं तवील जीने की सज़ा दोबारा,
रहने भी दे ये इश्फाक़े इनाम नया !
अभी अभी तो छायें हैं बादल घने -
बरसने दे निगाहों को दो पल कि
दूर हो जाएँ ज़रा सदियों की वीरानगी,
कोई ख़ूबसूरत गुले सबार तो खिले -
खुश्क़ दिल में गिरे चंद शबनमी बूंदें,
बोझिल सांसों में सजे संदली ख़ुश्बू
फिर बिखरतीं लहरों को साहिल मिले,
ज़िन्दगी को जीने का अंदाज़ मिले,
-- शांतनु सान्याल
तर्क़ब - आशा भरी
तवील - लम्बी
 इश्फाक़े इनाम - सहानुभूति का इनाम
 गुले सबार- कैक्टस 

14 जुलाई, 2011


ला उन्वान  
इन ख़ून की बूंदों में न कर तलाश
अक्शे ख़ुदा, हर दर्द भरी चीख में 
है शामिल ज़िन्दगी, ये टूट के 
आँखों से जो गिरती हैं बूंदें इनमें 
हैं अनदेखे ख़्वाब कई, न कर 
बर्बाद कि बड़ी मुश्किल से उठी 
हैं साँसें इक नयी सुबह के लिए, न 
दे अज़ाब इन खिलते फूलों को 
ये हैं तो हर सै में हैं ख़ुशी के मानी 
तू जीत भी ले ग़र सारी दुनिया 
दिल की विरानगी को आबाद न 
कर पायेगा, आग नहीं जानता 
अपना पराया, न झुलस जाय कहीं 
ख़ुद का घर, बस्ती सुलगने से 
पहले, अक़ीदत जो न समझ पाए
जज़्बा-ए- इंसानियत, ऐसे राहे
फ़लसफ़ा से आख़िर क्या हासिल,   
-- शांतनु सान्याल 
 ला उन्वान  - शीर्षक विहीन 
  अज़ाब - शाप 
अक़ीदत - श्रद्धा

12 जुलाई, 2011

पल भर तो रुके

ये ख़ामोशी है, या कोई  मत्सूफ़ नज़र
हर एक क़दम पे बहक सा जाए है डगर,
ये ख़ुमारी न डूबा ले जाए मुझे, जिससे
बचता रहा मंजिल- मंजिल, शहर- शहर,
चाहो तो अता कर जाओ जी चाहे सज़ा
न दो मुझे यूँ शहद के नाम पे दर्द ए ज़हर,
आह भी, इक इल्ज़ाम ए आरज़ू सा लगे
सांस भी लेना है मुश्किल, ऐ इश्क़े असर,
कहीं तो होगी इलाज ए मकां, बेचैन जिगर
पल भर तो रुके सही, ऐ बरसात ए  क़हर,
-- शांतनु सान्याल
 मत्सूफ़ - रहस्यमयी

11 जुलाई, 2011

नज़्म

गुज़रीं हैं बादे सबा अक्सर उदास सी 
इस ज़मीं का आसमां कोई नहीं,
खिलते हैं गुल ओ ज़ोहर दिलकश 
अंदाज़ लिए, ज़माने को फुरसत ही 
नहीं कि देखें इक नज़र के लिए, 
वहीँ रुकी सी हैं तमाम फ़सले बहार 
तरसतीं हैं निगाह  दर्दे असर के लिए,
न जाने किस मक़ाम पे बरसतीं हैं 
बदलियाँ, मुद्दतों ज़मीं तर देखा नहीं, 
कोई सबब शायद उन्हें मुस्कुराने नहीं 
देतीं,वरना चाहत में कमी कुछ भी न थीं !
-- शांतनु सान्याल

09 जुलाई, 2011

नज़्म - - सुलहनामा

भीगी भीगी सी फ़िज़ा, उभरे हैं फिर
कुछ बूंदें,बिखरती हैं रह रह न जाने
क्यूँ शीशायी अहसास, दिल चाहे कि
थाम  लूँ टूटती दर्द की लड़ियाँ, ग़र
तुम यक़ीन करो ये शाम झुक चली
है, फिर  घनी पलकों तले, सज चले
हैं ख़्यालों में कहीं, उजड़े  मरूद्यान
मांगती है ज़िन्दगी जीने का कोई
नया बहाना, चलो फिर से करें इक
बार दश्तख़त, है ये रात सुलहनामा,

-- शांतनु सान्याल 

29 जून, 2011


मुख़्तसर आरज़ू 

क्यूँ मज़तरब, बेक़रार सा है दिल 
अत्शे रूह बढ़ चली 
अब्रे अश्क़ रुके रुके सांसें हैं 
बोझिल न जाने कहाँ किस मक़ाम 
पे रुकी है ज़िन्दगी 
ये घने ज़ुल्मात के साए घेर चले 
फिर मर्तूब शब् मांगती है 
शिनाख्त ए मक़ाला, कहाँ जाएँ इस 
वहशतनाक रहगुज़र में 
अपनी ही साया है डरी डरी, दूर दूर 
आइना है गुमसुम सा 
दर ओ दीवार हैं ख़ामोश नज़र, कोई 
सूरत कोई बहाना कहीं से 
उभर आये, ज़िन्दगी को ढूंढ़ लाएँ 
सुबह देखने की सदीद आरज़ू
उम्र भर की तिश्नगी को कमज़कम
दो पल राहत नशीब हो, 
-- शांतनु सान्याल

मर्तूब शब् - भीगी रात
अत्शे रूह - रूह की प्यास
 मज़तरब - परेशां 
अब्रे अश्क़ - आंसुओं के बादल
शिनाख्त ए मक़ाला, -- पहचान पत्र

27 जून, 2011

ग़ज़ल - - तिश्नगी

इधर 
 से  गुज़रीं  हैं  शैलाबे  फ़लक बअज़ दफ़ा 
तिश्नगी  लेकिन  है मीलों लम्बी  बेक़रां  बहर 
वो  ख़लाओं  में अक्सर  मेरा  अक्श  ढूंढा  किये 
हूँ  मुद्दत  से  मैं  हामिद दिल के मुतलक़ भीतर 
बाहोश  उठा  तो  लिया था उसने  ये अहदे  वफ़ा 
सोचा भी  नहीं  के  जानलेवा  है कितना ये  ज़हर 
जिस्त  की  वो  तमाम  तहरीरें  जो वक़्त ने  दिए 
पढ़ा  उसने  नम आँखों  से, बेख़बर  शामो  सहर 
 न  जान  पाया  दिल  की  गहराइयों  का  राज़
ठिकाना  ही नहीं  मालूम,  है मारुफ़  ये रहगुज़र 
अपनी  ही  परछाइयों   से  दर  किनार  वो  चलें 
छूना  चाहे  हैं, वो मुझे  लेकिन भटके हैं दरबदर 
ले  चलो  मुझे  भी  उस  दर महबूबे  मक़सूद 
कि आ  जाय ज़रा  सी  नींद  जागता रहा  उम्रभर 
उठा  भी लो   कोई  पत्थर  मजमा  है  इस  क़दर 
है ये  जिस्म  मजरूह, कामिले  इश्क़  में  तरबतर,

- -- शांतनु सान्याल

हामिद - छुपा हुआ 
मुतलक़ - गहराई तक 
कामिल - पूर्ण 
बहर   - सागर 
बेक़रां - अथाह 
बअज - कई 

26 जून, 2011

वो इश्क़ जो आप चाहें कि दे न सकूंगा 
है बहुत मुश्किलभरी  जिंदगी की राहें,
और कहीं दोस्त मेरे, ढूंढ़ लें मंज़िल नया 
इस राह पे हैं सिर्फ घने तीरगी के बाहें ,
इस सराबे ख़ुशी का सऊर न दिला कि
खोजतीं हैं मुझको फिर मतीर निगाहें,
-- शांतनु सान्याल
सराब - मरीचिका 
सऊर - चाहत, 
मतीर - भीगी

23 जून, 2011

नज़्म - - थमीं सी हैं बूंदें

थमीं सी हैं बूंदें नाज़ुक शाख़ की
 
झुकी हुई, टहनी में सांस रोके -

कि देखता हूँ मैं अक्सर तुम्हें

खुले आसमां की तरह, रात ढले

शबनमी कोई अहसास लिए  -

उतरतीं हैं ख़लाओं से हौले हौले

नूरे ख़्वाब  मद्धम मद्धम, ये

 रात है बहुत ही कम, किसी की
 
इबादत के लिए, उम्र भर की

दुआओं में है कोई शामिल इस
 
क़दर,गोया छू लिया हो  बेख़ुदी

में किसी को ख़ुदा समझ कर,

है आबाद उनकी आँखों में कोई
 
लापता हसरतों की बस्तियां -
 
कि मैं बारहा डूब कर ज़िन्दगी

की तरह प्यार करता हूँ, हर

लम्हा किसी का इंतजार करता हूँ.

--- शांतनु सान्याल

21 जून, 2011

आज़ाद नज़्म

न करें ताज्जुब ये मेरी ही ताबूत है
ले चला हूँ काँधे पे लादे  दफ़न के लिए
ये कोई पहले दफ़े की बात नहीं, न
जाने कितने बार मर चूका हूँ मैं,
ग़र न हो यकीं पूछ लीजे इन खामोश
दरख्तों, सिमटते छाओं, सफ़ेद -
पोश चेहरों, सुलगती हुयीं वादियों से -
अपनी ही हाथों जला आया हूँ
हसरतों को,ख्वाबों के बियाबानो को
जिस्त की बेपनाह मुहोब्बत ही
थी कि लौट आती है,ये  रूह  बार बार
कभी भूख बनकर,कभी बिकाऊ
जिस्म बनकर,भटकती है अक्सर ये
आवारा आम सड़कों पे, और कभी
रात ढलते समेटती है झूठे बर्तनों को,
तलाशती है इक ज़रा सी जगह
स्टेशन की गलीच फर्श में,फुटपाथों में,
उसे नींद आती है पुरअसर बिना
कोई दवाओं के, कहीं भी, दरअसल वो
थकन ही है उसका बदन,जो किसी से
कुछ नहीं कहता, बिखरता है हर
पल, मिटता है लम्हा लम्हा, तिल तिल
ये मुसलसल मौत ही उसे बना जाता
है बेअसर, ज़हर आहंग, नासूर
दर्द, न कभी रिसता है न ही फटता है
सिर्फ सीने की गहराइयों में लिए
ज़लज़ले, धधकता, कांपता, सिसकता
तकता है सिफ़र आँखों से आसमां
की खूबसूरती, लेकिन छू नहीं सकता !
--- शांतनु सान्याल   




ग़ज़ल - - बेवजह बरसात से,

मिलता हूँ मैं रोज़ मेरी ही हम ज़ात से

है उन्हें  ग़र गिला तो रहे इस बात से

तंग है ज़िन्दगी इस बेवजह बरसात से,

वो निकलते हैं दबे क़दम इस तरह

कांपती हों साँसें रूह के ज्यों निज़ात से,

इस गली ने कभी उजाला नहीं  देखा

चाँद है बेख़बर  दर्दो अलम जज़्बात से,

मुस्कुराता तो हूँ मैं छलकती आँखों से

हासिल क्या आख़िर इस अँधेरी रात से,

खोजते हैं क्यूँ लोग,चेहरे पे राहतें, उन्हें

फ़र्क नहीं पड़ता जीने मरने की बात से,

इन मक़बरों में दिए जलाएं, कि बुझाएं

 हैं गहरी नींद में,जुदा सभी तासिरात से,

कह दो ये चीखें हैं किसी और सै की -

किसे है फ़िक्र आख़िर मजरुहे हालात से,

-- शांतनु सान्याल

ग़ज़ल - - रूहे अफ़साना

वो ज़रा सी बात का फ़साना बना चले

अश्क तो छलक ही न पाए पलकों से

निगाहों को छूने का बहाना बना चले,

अभी आसमां खुल के बिखरा भी नहीं

शबनमी बूंदों पे वो तराना बना चले,

वो जो कहते हैं, मुझसा कोई भी नहीं

शमा जले न जले यूँ परवाना बना चले,

वजूद को मुकम्मल खिलना है बाक़ी

क़बल रात,सरे शाम दीवाना बना चले,

कि अभी अभी बदन पे उगे हैं ख़ुशबू

खिलने से पहले गुले खज़ाना बना चले,

दिल की चाहत है क्या काश, समझ लूँ

हामी बग़ैर ही वो रूहे अफ़साना बना चले,

-- शांतनु सान्याल





 





20 जून, 2011

नज़्म - - ख़ामोशी की सदा

ये ख़ामोशी की सदा, कहीं इशारा
तो नहीं, उनकी आँखों में कोई
तूफ़ान सा थमा लगे, कि डूबती
हैं  क्यूँ  हवाओं की अठखेलियाँ,
खौफ़ सा घिर आये है  ज़ेहन में
ये रात कहीं जाँ से  न गुज़र जाए,
महफिल है उठ चली सितारों की
इक नज़र को तरस गए हम, ये
बात और है कि ज़िन्दगी किसी के
नाम थी,बड़ी बेदर्दी से दिल को
पियानो से यूँ हटा दिया कि छू न
जाय  उँगलियाँ  रिसते घाओं को
कहीं, झूलते झाड़ फानूस ने निभाई
दोस्ती, अँधेरे में हम खुद को देख
पाए,उनकी आँखों ने हमें यूँ तो दर
किनार कर दिया, गुज़रना था -
बादिलों को सो गुज़र गए बेरुख़ी से
गर्दो गुबार की सौगात लिए हम
सहरा की क़िस्मत बन गए साहब,
आसमानी दुनिया में किसी की,इक
टूटे हुए गुलदान की तरह थे शामिल,
ज़माना गुज़र गया सीने में गुलाब
सजाये हुए,इक मुश्त मुस्कराए हुए.

-- शांतनु सान्याल


17 जून, 2011

नज़्म - - मुस्कराने का सबब

कहाँ से आतीं हैं,
कराहों में डूबी ये आवाज़ें -
कि ज़िन्दगी बेमानी हुई जाती है,
कहाँ कोई फिर आईना है
टूटा, कि अक्श है मेरा
फिर बिखरा हुआ,
शाम है रंगीन, चिराग़ों से उठती
हैं, मजरूह सी रौशनी क्यूँ
न जाने कौन फिर किस मोड़ पे
किसी के लिए, दिल
की दुनिया लुटाये बैठा है,
वो तमाम उदास चेहरे खड़े हैं
उस चौक में किसी की इक झलक
पाने की उम्मीद लिए हुए -
सुना है वो कोई मसीहा था लेकिन
ज़माने ने उम्र से पहले उसे
सलीब पे चढ़ा दिया,
वो इश्तेहार जो मौसम ने बारहा
चिपकाया था वादियों में
कि लौटेंगी बहारें इक दिन
हमने इंतज़ार में तो उम्र गुज़ार दी
न देखा किसी को मुस्कराते
इक मुसलसल मक़बरा ए ख़ामोशी
के सिवाय कुछ भी तो न था
लोग कहते रहे यहीं पे कहीं हैं
फ़िरदौस की सीड़ियाँ, धुंध में डूबे
हुए थे सभी रास्ते, हम ने
कहीं तुम्हें देखा नहीं, घाटियों में
दर्द का धुआँ सा उठता रहा,
कराहों  की बस्तियां जलती रही
आईने टूटते रहे, चिराग़ बुझते रहे
सुबह कभी तो लाये  मुस्कराने का
सबब, हर शख्स ज़रा जी
तो ले मुख़्तसर ज़िन्दगी - - -
- - शांतनु सान्याल

 

06 जून, 2011


चिरस्थायी कुछ भी नहीं -
अनंत पथ के सभी समीकरण 
आखिर में शून्य हो गए
मुकुट व् मौसम में अंतर है 
बहुत ही थोड़ा -
न भेजो झंझा के हाथों कोई 
संदेस, वाष्पीकृत मेघ हैं, पागल 
न जाने कहाँ बिखर जाएँ,
सीमाविहीन हैं परागगण 
पंखुडियां हैं सदैव रंग बदलती,
भावनाओं के बुलबुले, स्वप्नों के 
संकलन, अपनों के चित्रावली,
आँखों में सहेज रखें तो बेहतर !
जीवन को बांधना है मुश्किल, न 
पूछो कि किसने किसे पाया 
किसने किसे खोया 
ये पहेली रहने भी दो, लहर और 
चांदनी के मध्य, कि मुमकिन नहीं 
दही का दुग्ध होना, तत्व जो है जन्मा 
विलुप्ति से मुकर नहीं सकता,
शब्दों के खेल थे सभी दर्शन 
भष्म हो कर अंत में सभी बह गए 
नीरव नदी विसर्जन में कभी 
बाधक नहीं बनती !
--- शांतनु सान्याल

05 जून, 2011

ज़िन्दगी

सुलगती है, ये रात फिर दोबारा
न कर जाय बर्बाद ख़्वाबों की वादियाँ 
बड़ी मुश्किल से हमने रोका था 
बादलों को शाम ढलते,
किसी के निगाहों से बहते आंसुओं की 
तरह, न हो यकीं तो पूछ लीजे 
इन ओंठों में नमीं है अब तलक मौजूद,
कैसे कह दें कि हमें तुमसे 
मुहोब्बत नहीं, उस मोड़ पे हमने आज
किसी के हथेलियों में ज़िन्दगी अपनी  
तर्ज़े हिना की मानिंद लिख आए हुज़ूर !
-- शांतनु सान्याल 

12 मई, 2011


गहराइयाँ

बंजर, अवहेलित, भावशून्य
निषिद्ध जीवन की पृथ्वी -
विलंबित निशा क्रंदित स्वप्न
विरोधाभास करते हैं, पीछा
एक दूसरे का सतत,
वहीँ कुछ ही दूर, उस मोड़ पर
अन्य जीवन अंकुरण की ओर
है अग्रसर, गर्भित शिशु
लेता है, सांस एक भावी सम्राट
की तरह, अपनी सिद्धांतों
से वो करेगा भविष्य रचना,
यहाँ स्वप्न करता है, अट्टहास
संपूर्ण रात्रि -
करीब ही
उस द्वार के भीतर, एक
व्यसनी पति पूछता है प्रमाण
बच्चे के पिता का, बरसों पहले
उसने ही पत्नी को किया था मजबूर
अनैतिक सम्बन्ध के लिए,
यहाँ गर्भित शिशु अँधेरे में खोजता है
टूटे हुए सांसों की डोरी,
स्वप्न हर हाल में जीती है,ज़िन्दगी,
रात रुके न रुके, सुबह खड़ी है लेकिन
क्षितिज पर -

--- शांतनु सान्याल  

06 मई, 2011

नज़्म - - लम्बी सी रहगुज़र

इतना न चाहो मुझे

के भूल जाऊं ये कायनात

अभी तो तमाम उम्र बाकी है

थमी थमी सी साँसें

बहकते जज्बात ज़रा रुको

अभी  तो इश्क-ए असर बाकी है

टूट के बिखर न जाये कहीं

हसरतों के नायब मोती

अभी तो जहाँ की नज़र बाकी है

वजूद से कुछ फास्लाह रहे

इक हलकी सी चुभन दरमियाँ हो

अभी तो लम्बी सी रहगुज़र बाकी है

شانتنو سانيال ----शांतनु सान्याल


ज़िन्दगी

रहनुमाह थे बहोत, मगर हमसफ़र कोई नहीं
तनहा तनहा चलता रहा,इक नदी के हमराह
कभी इस किनारे कभी उस तरफ रहगुज़र कोई नहीं
इक पुल हुवा करता था, कभी दो साहिलों के दरमियाँ
बेनिशान थे नदी के धारे, हद ए नज़र कोई नहीं
हर सिम्त थी इक अजीब सी ख़ामोशी, तलातुम ठहरा हुवा
मेरा साया दग़ा देता रहा, साथ उम्र भर कोई नहीं /
---शांतनु सान्याल

चलो खो जाएँ ---

दिल चाहे आज, खो जाएँ कहीं
दूर नीली वादियों में-


तिलिस्मी चाँद, निशाचर पखेरू,
अनजान खुशबु-


अरण्य फूलों की,यायावर ख्यालात
और तुम हो साथ,


न करो तुम मुझसे कोई सवालात, 
न मैं ही जवाब दूँ /


किरणों के रास्ते, अरमानों के हमराह, 
कोई और जहाँ, चलो खो जाएँ


चलो तलाश करें, उफक से कहा है
रोक ले सुबह को,


उम्र भर ये रात रहे बरक़रार,
अपनी मुहोब्बत की तरह /
---शांतनु सान्याल
खामोश निगाहों की जुबान
और दिल की गहराइयाँ,
मुस्कानों का दर्द और
हसने की वो मजबूरियां,
किसे छोड़े किसे अपनाएं
नज़दीक हैं सभी परछाईयाँ
अंतहीन रिश्तों की चाहत
और निगलती तन्हाईयाँ,
ओ मुखातिब हैं निगाहों के
और रेत भरी वक़्त की आंधियां /
--- शांतनु सान्याल

कुछ पल विशेष

फिर महके महुवा वन, दूर छितिज में खोया मन,
आदिम झरना, गहन अरण्य, वो चाहें
आत्म समर्पण, सजल नेह,
प्रतिबिंबित प्रणय,
उत्कंठित
सांध्य
प्रदीप, निशिपुष्प देह झकझोरे, उद्वेलित बाह्य
अंतर दर्पण। आग्नेयगिरी सम रह रह कर,
हिय में उठे अभिलाष, बन श्रावणी
मेघ सघन, बरसो तुम
उन्मुक्त आकाश,
अभिशापित
जीवन,
तृषित ह्रदय, सुप्त हास परिहास मुक्त करो
अप्रत्यासित, मम स्मृति मोहपाश।
प्रतिध्वनित मौन, मधु यामिनी
शेष आलिंगन बध्द देह,
छिन्न भिन्न
अवशेष,
परित्यक्त वासना, कुछ पल विशेष शून्य
जीवन परिधि, नग्न सत्य परिवेश,
प्रणय विनिमय, मधुरिम
दीर्घ क्लेश।
- - शांतनु सान्याल

ग़ज़ल - - इशारों से कहा होता

ज़रा सी बात थी इशारों से कहा होता
हजूम सा था हद-ए-नज़र तमाशाई
हम डूब के गुज़रते जानिब-ए-साहिल
राज़-ए-उल्फत किनारों से कहा होता
तमाम रात चांदनी सुलगती रही
इज़हार-ए-वफ़ा आब्सारों से कहा होता
गुमसुम सा आसमाँ तनहा तनहा
तड़प दिल की चाँद तारों से कहा होता
हवाओं में तैरती तहरीर-ए-इश्क
आँखों की बातें बहारों से कहा होता
हम जान लुटाये बैठे हैं
इम्तहान-ए-अज़ल अंगारों से कहा होता.
- - शांतनु सान्याल


 


कुछ गुमनाम पन्ने - --

इक लम्बी, खट्टी मीठी सी ज़िन्दगी
और लुकछुप करता बचपन-
पहाड़ी झरने की मानिंद बिखरते लम्हात
रेत पे लिख लिख कर किसी का नाम,
मुस्कराके मिटा देना --
अपनी ही परछाइयों से सहमते हुए
ज़माने के तमाम पहरे को
मुंह चिड़ाना, ओ खुबसूरत यादें --
शाम ढलते टूटे मंदिर के जानिब
दीप जलाने के बहाने
निगाहों से दिल की बात कहना
न कोई हसरत, न ही तकाज़ा
मासूम जज्बात, इश्क की बुनियाद
ओ ख्वाब जो कभी हकीक़त में ढल न सके -
ज़िन्दगी इक किताब जिसे पढ़ न सका कोई
पन्ने अपने आप जुढ़ते गए, दिन ब दिन-
मौसम की तरह रिश्तों के रंग, बदलते रहे
चाहत के तलबगार एक लम्बी फेहरिश्त -
हर कोई चाहे ढल जाऊं उसके सांचे में,
काश ओ गुमनाम पन्ने, किसीने पढ़ा होता
इक ग़ज़ल जो लबों पे आकार बिखर गयी वादियों में
आज भी फूल ओ खुशबुओं में उसके अक्श हैं मौजूद
वक़्त मिले कभी तो तलाश कीजिये
कुछ गुमनाम पन्ने--हवाओं में तैरती तहरीरें,
बादलों में पैगाम-ए मुहोब्बत, ओ इज़हार-ए-वफ़ा
जो कांच की तरह नाज़ुक, लेकिन बेदाग़ मुक़द्दस था .
-- शांतनु सान्याल


अपरिभाषित
सुदूर धूसर पहाड़ियों में, जब कभी दावानल धधक उठतें हैं ,
इक अजीब सी बेचैनी दिल के अन्दर होती है -
ओ फाल्गुनी रातें ,गर्म साँसों की तरह बहती बयारें
मध्य निशा ,रह रह कर चीखते मृग दल
सरसराते पीपल के सघन पत्ते , छाया पखेरू
थम थम कर रजनीगंधा का महकना
दूर तक परछाइयों का लगातार पीछा करना
ज़िन्दगी और मैं अक्सर अकेले में बातें करतें हैं
हिसाब करना बहोत ही मुश्किल है किसने, किसे, क्यों ?
मंज़िल से पहले ही धीरे से , खामोश चलते चलते
यूँ रास्ता बदल लिया अपना , जैसे कोई गुलदान टूट जाए
और हम कहें जाने भी दो ,शीशा ही था टूट गया -
टूटे रिश्ते और पहाड़ों में धधकती आग
बरसात का इंतजार नहीं करते
कौन किस गली में मिल जाये बादलों की तरह
जिसे बरसना है वो वादी और सेहरा में फर्क नहीं करते
हमें भी जीना है चाहे रात लम्बी हो या चंद लम्हात की
हिरण की दर्द भरी चीखें काश हम समझ पाते /
----शांतनु सान्याल
जाने किस ओर मुड़ गए वो सभी बंजारे बादल
देख सूखी रिश्तों की बेल, हम बहुत परेशां हुए
जोगी जैसा मासूम चेहरा, मरहमी दुवागो हाथ
आमीन से पहले,जाने कब व् क्यों लहुलुहान हुए
बूढ़ा बरगद, सुरमई सांझ, पक्षियों का कोलाहल
पलक झपकते, जाने क्यों ये  सब सुनसान हुए
खो से गए कहीं दूर, मुस्कराहटों के वो झुरमुट
आईने का शहर, और भीड़ में हम अनजान हुए
स्याह , खामोश, बेजान, बंद खिड़की ओ दरवाज़े
संग-ए-दिल,मुस्ससल दस्तक, हम पशेमान हुए
ज़िन्दगी भर दोहराया,आयत,श्लोक, पाक किताबें
मासूम की चीख न समझे,जी हाँ सभी बेईमान हुए
जाने किस देश में बरसेंगे मोहब्बत के गहरे बादल,
ज़मीं,गुल-ओ-दरख़्त,लेकिन अभी तो वीरान हुए .
----शांतनु सान्याल

एक लम्बी रात रहस्मयी

धूमिल आकाश, सूर्य अस्तगामी
अलस मरुभूमि,सांझ बोझिल
प्रवासी विह्ग, अन्तरिक्ष विशाल
कुछ अवाक चेहरे, अनजान शहर
अज्ञात भविष्य, बूँद बूँद स्मृति
देश,माटी,नदी,पहाड़,समुद्र,वर्षा
शरत, चन्द्रमा,और अश्रु घनीभूत
मौसमी पुष्प, सुवासित वातायन
बच्चों की किलकारियां, अतुलनीय
माँ की झिड़क, और आलिंगन
जन अरणय, रेल का गुज़ारना
उदास आँखों से छुटता अपनापन
विमान का अकस्मात् उड़ना
और एक लम्बी रात रहस्मयी /
---शांतनु सान्याल

वक़्त के पहले

वक़्त के पहले 

इक उम्र से तलाश थी जिसकी
निग़ाह दर निग़ाह भटकते रहे हम

वो जो मेरे अश्क से था तर ब तर
दिल के किसी कोने में छुपा हुआ
गुम सुम सा डरा डरा - - - - - -
इक ख्याल, कमसिन अहसास
दरवाज़े के इक कोने में
किसी नादान बच्चे की तरह
अक्सर छुप कर लिबास बदलता हुआ
दुनिया की निगाहों से बचता रहा
आज बात कुछ और है,
वो  नन्हा सा मासूम कहीं खो सा गया

अब वो खुद को देखता है,
बेलिबास आईने के सामने  -
और अपनी शख्सियत  को सजाता है,
दरवाज़े के बाहर बेचने के लिए
ज़माने ने  उसे वक़्त के पहले ही
जवान बना छोड़ा ,
--शांतनु सान्याल

05 मई, 2011

ज़िन्दगी

इक लम्बी, खट्टी मीठी सी ज़िन्दगी
और लुकछुप करता बचपन-
पहाड़ी झरने की मानिंद बिखरते लम्हात
रेत पे लिख लिख कर किसी का नाम,
मुस्कराके मिटा देना --
अपनी ही परछाइयों से सहमते हुए
ज़माने के तमाम पहरे को
मुंह चिड़ाना, ओ खुबसूरत यादें --
शाम ढलते टूटे मंदिर के जानिब
दीप जलाने के बहाने
निगाहों से दिल की बात कहना
न कोई हसरत, न ही तकाज़ा
मासूम जज्बात, इश्क की बुनियाद
ओ ख्वाब जो कभी हकीक़त में ढल न सके -
ज़िन्दगी इक किताब जिसे पढ़ न सका कोई
पन्ने अपने आप जुढ़ते गए, दिन ब दिन-
मौसम की तरह रिश्तों के रंग, बदलते रहे
चाहत के तलबगार एक लम्बी फेहरिश्त -
हर कोई चाहे ढल जाऊं उसके सांचे में,
काश ओ गुमनाम पन्ने, किसीने पढ़ा होता
इक ग़ज़ल जो लबों पे आकार बिखर गयी वादियों में
आज भी फूल ओ खुशबुओं में उसके अक्श हैं मौजूद
वक़्त मिले कभी तो तलाश कीजिये
कुछ गुमनाम पन्ने--हवाओं में तैरती तहरीरें,
बादलों में पैगाम-ए मुहोब्बत, ओ इज़हार-ए-वफ़ा
जो कांच की तरह नाज़ुक, लेकिन बेदाग़ मुक़द्दस था /
----शांतनु सान्याल

04 मई, 2011

काश जान पाते قاش جان پاتے

वो आदमी जो फूटपाथ पे

وو  آدمی  جو  فوٹ پاتھ  پے   
रात दिन, धुप छांव, गर्मी सर्दी
رات،  دیں ، دھوپ  چھاؤں 
अपने हर पल गुज़ार गया
اپنے  ہر  پل  گزار  گیا 
काश जान पाते उसके ख्वाबों में
قاش  جان  پاتے اسکے  خوابوں  میں 
ज़िन्दगी का अक्श क्या था //
زندگی  کا  اقص  کیا  تھا
वो शक्स रोज़ झुकी पीठ लिए
وو شقص  روز جھکی پیٹھ  لئے
बड़ी मुश्किल से रिक्शा चलाता हुवा
باڈی  مشکل سے اکشا  چلاتا  ہوا   
कल शाम गिर कर उठ न पाया
کل شام  گر کر اٹھ  نہ  پایا 
काश जान पाते कभी उसके दिल में
قاش جان پاتے  کے اسکے  دل  میں
सुबह की तस्वीर क्या थी //
صبح  کی  صراط  کیا  تھی 
वो चेहरा गुमसुम रेस्तरां में
وو  چہرہ  گمسم  ریستراں میں
आधी रात ढले काम करता रहा
آدھی رات  کام  کرتا  رہا 
उम्र भर गालियाँ सुनता रहा
عمر بھر گالیاں  سنتا  رہا  
काश जान पाते उसके बचपन के
قاش  جان  پاتے کہ  اسکے  بچپن  کے  
हसीं लम्हात क्या थे //
حسیں لمحات  کیا تھے 
एक बूढ़ा माथे पे बोझ लादे हुए
ایک بوڑھا ماتھے  پے  بوجھ  لادے  ہے 
मुक्तलिफ़ रेलों का पता देता रहा
مختلف ریلوں  کا پتہ  دیتا  رہا  
मुद्दतों प्लेटफ़ॉर्म में तनहा ही रहा
مدّتوں  پلاتفارم میں  تنہا   ہی  رہا
काश जान पाते उसकी
قاش  جان  پاتے  اسکی
मंज़िल का पता क्या था //
مزل کا  پتہ  کیا  تھا
शहर के उस बदनाम बस्ती में
شہر  کے  اس  بدنم  بستی  میں
पुराने मंदिर के ज़रा पीछे
پرانے  مندر  کے  ذرا  پیچھے
मुगलिया मस्जिद के बहोत करीब
مغلیہ  مسجد  کے  بھوت  قریب
शिफर उदास वो बूढी निगाहें
شیفر  اداس  وو  بوڑھی  نغاہیں
तकती हैं गुज़रते राहगीरों को
تکتیں  گزرتے  راہ گیروں  کو 
काश जान पाते उसकी नज़र में
قاش  جان  پاتے  اسکی  نظر  میں
मुहब्बत के मानि क्या थे //
مھوبّت  کے مانی  کیا تھے
वृद्धाश्रम में अनजान
وریدحہٰ آشرم میں  انجان
भूले बिसरे वो तमाम आँखें
بھولے  بسرے  وو  تمام  آنکھے
झुर्रियों में सिमटी जिंदगी
جھرریوں  میں  سمٹی  زندگی
काश जान पाते, वो उम्मीद की गहराई
قاش  جان  پاتے  وو امید  کی  گہری
जब पहले पहल तुमने चलना सिखा था //
جب  پہلے  پھل  تھمنے  چلنا  سیکھا  تھا
वो मुसाफिरों की भीड़ , कोलाहल
وو  مسافروں  کی بھیڑھ، کولاحال
जो बम के फटते ही रेत की मानिंद
جو  بم  کے پھٹے  ہی  ریت  کی مانند
बिखर गई खून और हड्डियों में
بکھر گئی  خون  اور  ہددیوں میں
काश जान पाते के, उनके लहू
قاش  جان  پاتے  انکے  لہو
का रंग हमसे अलहदा न था //
کا رنگ  ہمسے  الحدا  نہ  تھا
सिसकियों की ज़बाँ भी होती है
سسکیوں  کی  بھی  زباں  ہوتی  ہے 
करवट बदलती परछाइयाँ
کروٹ بدلی  پرچھائیاں  
और सुर्ख भीगी पलकों में कहीं ,
اور  سرخ  بھیگی  پلکوں  میں  کہیں
काश हम जान पाते खुद के सिवाय
قاش  ہم  جان  پاتے  خود  کے  صوا
ज़माने में ज़िन्दगी जीतें हैं और भी लोग //
زمانے  میں  زندگی  جیتیں  ہیں  اور بھی  لوگ 


شانتانو  سانیال - 
शांतनु सान्याल    

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