11 जुलाई, 2011

नज़्म

गुज़रीं हैं बादे सबा अक्सर उदास सी 
इस ज़मीं का आसमां कोई नहीं,
खिलते हैं गुल ओ ज़ोहर दिलकश 
अंदाज़ लिए, ज़माने को फुरसत ही 
नहीं कि देखें इक नज़र के लिए, 
वहीँ रुकी सी हैं तमाम फ़सले बहार 
तरसतीं हैं निगाह  दर्दे असर के लिए,
न जाने किस मक़ाम पे बरसतीं हैं 
बदलियाँ, मुद्दतों ज़मीं तर देखा नहीं, 
कोई सबब शायद उन्हें मुस्कुराने नहीं 
देतीं,वरना चाहत में कमी कुछ भी न थीं !
-- शांतनु सान्याल

3 टिप्‍पणियां:

  1. गुज़रीं हैं बादे सबा अक्सर उदास सी
    इस ज़मीं का आसमां कोई नहीं,
    खिलते हैं गुल ओ ज़ोहर दिलकश
    अंदाज़ लिए, ज़माने को फुरसत ही
    नहीं कि देखें इक नज़र के लिए, kya baat hai !

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  2. न जाने किस मक़ाम पे बरसतीं हैं
    बदलियाँ, मुद्दतों ज़मीं तर देखा नहीं,

    वाह्…………शानदार भाव संग्रह्।

    जवाब देंहटाएं

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