06 मई, 2011

वक़्त के पहले

वक़्त के पहले 

इक उम्र से तलाश थी जिसकी
निग़ाह दर निग़ाह भटकते रहे हम

वो जो मेरे अश्क से था तर ब तर
दिल के किसी कोने में छुपा हुआ
गुम सुम सा डरा डरा - - - - - -
इक ख्याल, कमसिन अहसास
दरवाज़े के इक कोने में
किसी नादान बच्चे की तरह
अक्सर छुप कर लिबास बदलता हुआ
दुनिया की निगाहों से बचता रहा
आज बात कुछ और है,
वो  नन्हा सा मासूम कहीं खो सा गया

अब वो खुद को देखता है,
बेलिबास आईने के सामने  -
और अपनी शख्सियत  को सजाता है,
दरवाज़े के बाहर बेचने के लिए
ज़माने ने  उसे वक़्त के पहले ही
जवान बना छोड़ा ,
--शांतनु सान्याल

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