15 दिसंबर, 2021

अशेष रात्रि - -

 

मन की अगम गहराई जाने न कोई,
सतह को छू कर बस मुस्कुरा
जाते हैं लोग, जल चक्र
में थे सभी अटके
हुए, मौसम
का यूँ
सहसा रुख़ बदलना पहचाने न कोई,
मन की अगम गहराई जाने न
कोई। कौन डूबे कहां, किस
अंध घाटी के अंदर,
कहना नहीं
आसान,
इसी
पल में है समाहित सारा ब्रह्माण्ड - -
और पलक झपकते ही उस
पार बिखरा हुआ सारा
आसमान, सांस
के साथ ही
उठते
गिरते हैं चाहतों के रंगीन यवनिका,
नेपथ्य के हाथों में है अदृश्य
डोर, परम सत्य को
जान कर भी
उसे माने
न कोई,
मन की अगम गहराई जाने न कोई।
कोहरे के सीढ़ियों से उतरता है
धीरे धीरे आख़री पहर का
चाँद, तुम हो दिल के
क़रीब या रस्म
अदायगी
है ये
ज़िन्दगी, उड़ते हुए मेघ कणों को है
छूने की आस या मरू थल के
सीने में है भटकती हुई
कोई सदियों की
प्यास, किसी
चकमक
पत्थर
से
अपने आप उठती हैं चिंगारियां या
कुछ सुख के पल आज भी हैं
मेरे आसपास, अजीब सी
है ये नज़दीकियां,
दिल के क़रीब
हो कर भी
सभी,
दरअसल अपना माने न कोई, मन
की अगम गहराई
 जाने न
कोई।
* *
- - शांतनु सान्याल

 

21 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते ,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार(१६-१२ -२०२१) को
    'पूर्णचंद्र का अंतिम प्रहर '(चर्चा अंक-४२८०)
    पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित है।
    सादर

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  2. जीवन का 'अशेष* संदेश छ‍िपा है इन पंक्‍त‍ियों में शांतनु जी, क‍ि....

    अपना माने न कोई, मन
    की अगम गहराई
    जाने न
    कोई।....बहुत सुंदर कव‍िता

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  3. बेहतरीन भावपूर्ण अभिव्यक्ति।
    सादर।

    जवाब देंहटाएं
  4. दिल की अगम गहराई जाने ना कोई
    बहुत ही सुन्दर गहन अर्थ समेटे
    लाजवाब भावाभिव्यक्ति
    वाह!!!

    जवाब देंहटाएं

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