11 जून, 2015

असमाप्त अन्तर्यात्रा - -

 उस अंतिम छोर में, कोई प्रतीक्षारत
नहीं और इस मोड़ में भी, मैं
रहा सदैव एकाकी, बूढ़ा
बरगद, सिमटती
नदी, विलीन
हुए सब
सांध्य कोलाहल, उड़ गए सुदूर सभी
प्रवासी पाखी। पिघली है बर्फ़
वादियों में, या फिर दिल
में जगी है कोई
आस पुरानी,
गोधूलि
बेला, सिंदूरी आकाश, तुलसी तले - -
माटी - प्रदीप, वही अनवरत
झुर्रियों से उभरती हुई
तेरी मेरी जीवन
कहानी।
वो तमाम स्मृति कपाट अपने आप
जब हो चलें बंद, तब अंतर पट
खोले नव दिगंत द्वार,
निरंतर असमाप्त
अन्तर्यात्रा !
कोई न
था एक मेरे अलावा उस भूल - भुलैया
के उस पार।

* *
- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.in/

dusan djukaric art

6 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (13-06-2015) को "जुबां फिसलती है तो बहुत अनर्थ करा देती है" { चर्चा अंक-2005 } पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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