20 जून, 2015

बिखर जाने दे - -

कांच के बूंदों की तरह टूट
कर मुझे बिखर जाने
दे, कोई अधूरी
ख़्वाहिश
न लगे चुभता सा किनारा,
उफनती नदी की
मानिंद फिर
मुझे निखर
जाने दे,
इस ख़ानाबदोश बारिश का
कोई अपना वतन नहीं,
रातभर के लिए ही
सही मेरी
आँखों
में ठहर जाने दे, न जाने -
ज़माने में है क्यूँ,
इतनी सारी
छटपटाहट,
चाँद को
ज़रा और मेरे सीने में हौले
से उतर जाने दे,आईना
है मुन्तज़िर इक
मुद्दत से मुझे
देखने के
लिए,रात के अंधेरों से ज़रा
ज़िन्दगी को और उभर
जाने दे, कांच के
बूंदों की तरह
टूट
कर मुझे बिखर जाने दे - -

* *
- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.in/
dae chun kim painting

1 टिप्पणी:

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past