नहीं ये सिर्फ़ नाज़रीं हैं,
देख शहर कोतवाल
हौले से निकल
ही जाएंगे।
तनहा ही सही गुज़रने दे मुझे
बेख़ौफ़ यूँ ही वस्त राह,
कहीं न कहीं, किसी
मोड़ पे गुमनाम
इन्क़लाबी
मिल ही जाएंगे। मज़मा ए शहर
मुबारक हो तुझ को बहोत
दूर है कहीं मेरी नन्ही
सी इक दुनिया,
जुगनू ओ
तितलियाँ बसते हैं जहाँ, आज -
नहीं तो कल बर्फ़ीले चादर
वादियों के पिघल ही
जाएंगे। फिर
खिलेगी
धूप संदली, माँ की दुआओं वाली,
फिर रूठे हुए बच्चे चाँद का
अक्स थाली में देख,
मासूमियत
हँसी के
साथ बहल ही जाएंगे। - -
* *
- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.in/
art by david cheifetz
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें