कुछ इस तरह से छलकें मेरी
आँखें कि किसी को कुछ
पता भी न चले और
दर्द ए दिल को
आराम
मिले। कहाँ से लाएं वो यक़ीं,
जो तुझे ले आए, फिर
मेरी बज़्म की
जानिब,
ख़ानाबदोश ज़िंदगी को इस
बहाने ही सही, जीने का
अहतराम मिले।
यूँ तो हर
कोई था मेरा तलबगार इस
शहर में, लेकिन मेरी
सांसों पे इक
तेरे सिवा
कोई और मुस्तहक़ न था -
चले भी आओ किसी
बहाने कि डूबती
सांसों को
पल दो पल ही सही, उभरने
का कोई पैग़ाम मिले।
* *
- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.in/
karen mathison schmidt painting.jpg
आँखें कि किसी को कुछ
पता भी न चले और
दर्द ए दिल को
आराम
मिले। कहाँ से लाएं वो यक़ीं,
जो तुझे ले आए, फिर
मेरी बज़्म की
जानिब,
ख़ानाबदोश ज़िंदगी को इस
बहाने ही सही, जीने का
अहतराम मिले।
यूँ तो हर
कोई था मेरा तलबगार इस
शहर में, लेकिन मेरी
सांसों पे इक
तेरे सिवा
कोई और मुस्तहक़ न था -
चले भी आओ किसी
बहाने कि डूबती
सांसों को
पल दो पल ही सही, उभरने
का कोई पैग़ाम मिले।
* *
- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.in/
karen mathison schmidt painting.jpg
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (16-06-2015) को "घर में पहचान, महानों में महान" {चर्चा अंक-2008} पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
हार्दिक आभार - - नमन सह ।
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