20 जुलाई, 2012

अगोचर यज्ञ शिखा

फिर घिरे हैं बादल ईशान्य कोणी, पुनः जगे
हैं कोंपल सिक्त निद्रा से, नेह बरसे कहीं
थम थम कर, मध्य यामिनी कुछ
स्वप्नील कुछ तंद्रित सी,
एक आहट जो रख
जाए हौले से
मधु गंध
मिश्रित भावना, दहलीज़ पार स्वप्न खड़ा
हो जैसे लिए हाथों में पुष्प गुच्छ,
मायावी रात, बिखर चली है
ज्योत्स्ना, अज्ञात एक
स्पर्श ! फिर छू सा
गया कोई
अंतर्मन के तार नाज़ुक, हृदय स्पंदन -
कुछ चंचल कुछ कमनीय, फिर
महके चन्दन वन, पुनः
जीवन चाहे पवित्र
धूप दहन, देह
बने फिर
देवालय, अदृश्य यज्ञ में हों सर्व अहंकार
विसर्जित, फिर चमके व्यक्तित्व
विशुद्ध स्वर्णिम आभा युक्त,
जीवन का अर्थ हो जाए
सार्थक, फिर
उन्मुक्त
प्राण पिंजर, और विस्तीर्ण आकाश हो -
सम्मुख - - -

- शांतनु सान्याल  
http://sanyalsduniya2.blogspot.in/



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