मिट्टी के गुल्लक में बंद थे ख़्वाबों के मोहर, टूटते ही बिखर गए मुद्दतों के भीगे धरोहर,
इंद्रधनु सा उभरे कभी जलप्रपात के ऊपर,
कांच की बूंदे रुकती नहीं हथेली में पलभर,
नेह के बादल उड़ चले हैं तितलियों के संग,
सुदूर द्वीप में सज चले हैं जुगनुओं के शहर,
रेशमी छुअन गुज़रती है देह प्राण से हो कर,
जी उठते हैं सुप्त कोश रात्रि के अंतिम पहर,
शिराओं से हो कर बहती है प्रणय गंध धारा,
मद्धम सुर में अंतर्ध्वनि गाएं गीत ठहर ठहर,
महाशून्य में बहते जाएं आलोक स्रोत के संग,
छोड़ जाएं सभी बंध अपनी जगह उसी डगर, ।
- - शांतनु सान्याल
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जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंअति मनमोहक बिंबों से सजी सुंदर अभिव्यक्ति सर।
जवाब देंहटाएंसादर।
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जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना मंगलवार ५ अगस्त २०२५ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
सुंदर
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर अभिव्यक्ति
जवाब देंहटाएंबेहतरीन....
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