उतरती है धूप बालकनी को छू कर, परछाइयों में रह जाते हैं कुछ
मीठे एहसास, दूर पहाड़ों
के ओट में सूरज डूब
चला, फिर एक
दिन डायरी
से गिर
चुका,
निकलने के बाद हल्का सा दर्द छोड़
जाता है उंगलियों में नन्हा सा
फाँस, परछाइयों में रह
जाते हैं कुछ मीठे
एहसास । नदी
का प्रवाह
सतत
खेलता है ध्वंस और निर्माण के मध्य,
इस पार हाहाकार उस पार जलोढ़
माटी का भंडार, बंजर से हो कर
खेत खलिहान, कभी उमस
भरे दिन कभी अनवरत
बरसता आसमान,
गंतव्य यथावत
कुहासामय
फिर भी
अज्ञात को पाने का अंतहीन प्रयास,
परछाइयों में रह जाते हैं कुछ
मीठे एहसास ।
- - शांतनु सान्याल
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में सोमवार 25 अगस्त 2025 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसुंदर
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंबहुत ही मीठे एहसास
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