हर कोई सोचे अपने वृत्त में घुड़सवार, वक़्त के हाथों घूमे काठ का हिंडोला, उम्र भर
का संचय जब निकले दीर्घ श्वास,
शून्य के सिवाय कुछ नहीं
होता अपने पास, तब
मुस्कुराता नज़र
आए अरगनी
से लटका
हुआ
ज़िन्दगी का फटेहाल झोला, वक़्त के हाथों
घूमे काठ का हिंडोला । घर से उड़ान
पुल हो कर वही हाट बाज़ार,
दैनिक शहर परिक्रमा,
पीठ सीधी करने
की अनवरत
कोशिश,
वही
टूट के हर बार बिखरने का सदमा, हज़ार
इतिकथाओं का मृत संदेश, वही
सीलनभरी दुनिया सरीसृपों
की तरह रेंगते परिवेश,
ऊपर से विहंगम
दृश्य नज़र
आए
मनोरम, वक्षस्थल के नीचे जले अनबुझ
ज्वाला, वक़्त के हाथों घूमे काठ
का हिंडोला ।
- - शांतनु सान्याल
सुन्दर
जवाब देंहटाएं