सृष्टि का बाह्यरूप अभी तक है थमा हुआ, अंदर अनवरत प्रसारित हैं असंख्य कीट
संसार, शाखा प्रशाखाओं में छुपे हुए
हैं अनगिनत मकड़जाल, अनेक
रंगीन छत्रक उभर आए हैं
धरा के वक्षःस्थल पर,
अदृश्य विषदंत पर
कोई रख गया है
फूलों वाला
रेशमी
रुमाल, शाखा प्रशाखाओं में छुपे हुए हैं - अनगिनत मकड़जाल । शायद तुम
उसे पहचानते नहीं, यूं भी इस
प्रजन्म को इतिकथा पसंद
नहीं, क्षत विक्षत देह ले
कर वो चला जा
रहा है छाया
हीन, कहीं
दूर द्वीप
में, जहाँ प्रकृति निर्भय हो कर बिखेरती
है अपना वरदान, भेदभाव विहीन
एक ऐसी जगह जहाँ देह प्राण
को मिले मुक्ति स्थान, वो
पुनः लौटेगा एक दिन
रचेगा प्रकृत रंगों
से जर्जर सृष्टि
का शापित
भाल,
शाखा प्रशाखाओं में छुपे हुए हैं अनगिनत मकड़जाल ।
- - शांतनु सान्याल
सुन्दर
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