ख़त्म कहाँ होता है स्वयं से खेलने का हुनर, उम्र गुज़रता रहा रुकता नहीं दिल का सफ़र,
फिर मुँडेर पे कोई शाम ए चिराग जला गया,
हद ए निगाह में फिर खिल उठे हैं गुलमोहर,
न जाने कौन है जो रख गया रंगीन लिफ़ाफ़ा,
अदृश्य ख़ुश्बूओं का पता ढूंढती है मेरी नज़र,
फिर लोगों ने एक मुद्दत के बाद किया है याद,
न जाने किस के दुआओं का है ये गहरा असर,
- - शांतनु सान्याल
वाह
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