26 जुलाई, 2025

आग़ाज़ ए सफ़र - -

सुरंगों से हो कर गुज़रती है रात, सीने

में फड़फड़ाते हैं इतिहास के पृष्ठ,
अंधेरे उजाले के मध्य खो से
जाते हैं कहीं उम्मीद भरे
स्वाधीन पहर, बहुत
कुछ चाहा था
हमने अग्नि
शपथ
लेने
से पहले, मशाल की लौ में उभरते हैं
शैल चित्र, धूसर शून्यता घेरे हुए,
प्रश्नों के भीड़ में भयभीत सा
छुपा बैठा है कहीं उत्तर -
जीविता का उत्तर,
अंधेरे उजाले
के मध्य
खो से
जाते हैं कहीं उम्मीद भरे स्वाधीन
पहर । परछाई का वादा था
झूठा, हम चलते रहे दूर
तक अज्ञात ही रहा
मरुभूमि का
सीमांत, न
कोई
दरख़्त, न कोई सराय, न दूर तक
एक बूँद की झलक, दरअसल
हम एक ख़्वाब में जन्में थे
और उसी ख़्वाब में एक
दिन खो जाएंगे, जो
पल साथ गुज़ारे
बस वही सच
थे बाक़ी
फ़रेब,
कुछ उम्मीद हैं बहुत ही ज़िद्दी हमें
बारम्बार लौटा लाते हैं नए
उभरते हुए ख़्वाब के
अंदर, एक नए
शुरुआत के
संग फिर
आग़ाज़ ए सफ़र - -
- - शांतनु सान्याल 

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अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past