29 जनवरी, 2024

रिक्त स्थान - -

क्रूसबिद्ध भावनाओं का पुनर्जन्म सम्भव नहीं,

एक दीर्घ प्रतीक्षा के बाद निशि पुष्प झर
जाते हैं, मील के पत्थर अपनी
जगह ख़ामोश खड़े रहते
हैं लोग अनदेखे से
अपने गंतव्य
की ओर
गुज़र
जाते हैं । संधि विच्छेद के बाद दर्पण शून्यता
बटोरता रहा, फ़र्श में बिखरे पड़े रहते हैं
अर्थहीन शब्दों के वर्णमाला, जीवन
का व्याकरण हर हाल में समास
बद्ध होना चाहता है, अदृश्य
तृण अपने आप प्रथम
वृष्टि में बंजर भूमि
से उभर आते
हैं, एक
दीर्घ
प्रतीक्षा के बाद निशि पुष्प झर जाते हैं । कोई
भी नहीं होता नेपथ्य में, फिर भी परिचित
ध्वनियां पीछा नहीं छोड़ती, अजीब
सा है मायावी काठ का गोलाकार
हिंडोला, फेंकता है ऊंचाइयों
से रेशमी जाल, धीरे धीरे
धूसर आकाश के
कोने, असंख्य
तारों से
भर
जाते हैं, एक दीर्घ प्रतीक्षा के बाद निशि पुष्प झर
जाते हैं ।
- - शांतनु सान्याल


27 जनवरी, 2024

अदृश्य मिट्टी - -

लब ए चिराग़ को कई बार बुझते हुए देखा है,

बज़्म है उगते सूरज की दुआ सलाम हो जाए,

धूप की उतराई में ताज को झुकते हुए देखा है,

इतना भी ख़ौफ़ ठीक नहीं कि बेज़ुबां हो जाएं,

किनारे से घबराए लहरों को लौटते हुए देखा है,

इजलासे फ़तह बहुत हुआ ज़मीं पर लौट आएं,

तख़्त के नीचे ज़मीं को खिसकते हुए देखा है,

हर शख़्स को चाहिए यहाँ ज़मानत ए ज़िन्दगी,

अज़ीम पीपल को पतझर में झरते हुए देखा है,

लब ए चिराग़ को, कई बार बुझते हुए देखा है ।

- - शांतनु सान्याल

21 जनवरी, 2024

निःशब्द शंखनाद - -

कुहासे में डूबे हुए हैं सभी रास्ते, अंधकार ढूंढता है कुछ बिखरे हुए धूप के टुकड़े, कुछ सुख के 

झरे हुए रंगीन पंख,

निद्रित शहर के 

परकोटे पर

है निशाचर 

पाखियों 

का

एक छत्र राजत्व,अंधकार समेटना चाहता है कुछ

बिखरे हुए स्वप्न खंड,

अंधकार ढूंढता है 

कुछ बिखरे हुए 

धूप के टुकड़े,

कुछ सुख 

के झरे 

हुए रंगीन पंख। जन शून्य पथ में बिखरे पड़े हैं 

विजय पताकाएं, 

विच्छिन्न पुष्प 

की पंखुड़ियां, 

अंधकार 

अपने नग्न देह में लपेटना चाहता है सरीसृपों के शल्क,असत्य शपथों 

के उतरन, वो

बुहारता 

चला 

जाता है स्वर्णकारों की गली ताकि मिल जाए कुछ अदृश्य अमूल्य कण, 

जिसे प्रातः बेच 

कर एक दिन 

और जुड़ 

जाए 

जीवन में, समुद्र तट में बेतरतीब बिखरे पड़े 

रहते हैं निःशब्द 

मौन शंख, 

अंधकार 

ढूंढता 

है कुछ बिखरे हुए धूप के टुकड़े, कुछ सुख के झरे हुए रंगीन पंख।

- - शांतनु सान्याल

17 जनवरी, 2024

ज़िन्दगी भर का हिसाब - -

हाशिये पे ज़िन्दगी रह कर भी सुर्खियाँ कम नहीं होती,

ये बात और है कि हर टपकती बूंद शबनम नहीं होती, 

वो कहते हैं, समंदर की तरह ज़ब्त में रहना सीखें हम, 
जुनूनी मौजों के सिवा, लेकिन साहिल नम नहीं होती, 

कर लो फ़तह ये दुनिया, दिल जीतना यूँ आसां नहीं,
तक़दीर के आसमान पे, नूरे अल्वी हरदम नहीं होती, 

मुझ से न मांग, उम्र भर का हिसाब चंद अल्फ़ाज़ में,
सिलसिला है मुहोब्बत का, जो कभी कम नहीं होती,

दौलत, शोहरत, मुख़्तसर ज़िन्दगी, तवील तलाश !
हर टूटता ख़्वाब, लेकिन यूँ रौशन नजम नहीं होती,

-- शांतनु सान्याल
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अर्थ -
नूरे अल्वी - दिव्य  ज्योति 
 तवील - लम्बी 
नजम - सितारा 
ज़ब्त - नियंत्रण में


16 जनवरी, 2024

न जाने क्या था वो - -

उड़ा ले गई हमें कल रात नसीम ए खिज़ां 

या कोई अहसास दीवाना, हमें कुछ
भी ख़बर नहीं, तैरते रहे हम 
राहे सिफ़र रात भर !
कभी बादलों के 
क़रीब,
कभी चाँद के बहोत नज़दीक, न जाने वो 
कौन था, जो छाया रहा जिस्म ओ 
जां में इस क़दर, हमें कुछ 
भी ख़बर नहीं, सिर्फ़ 
याद रहा इतना
कि उसकी 
आँखों 
में थी, इक ऐसी तिलस्मानी दुनिया जहाँ 
से लौटना नहीं था अपने वश में !
वो इश्क़ था या बाज़ी ए 
मर्ग, कहना है 
मुश्किल 
हर लम्हा इक नयी ज़िन्दगी हर पल - - 
जां से गुज़र जाना - - 

* * 
- शांतनु सान्याल 

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12 जनवरी, 2024

शहर भर चर्चा रहा - -

ना शनास मंज़िल पे कहीं है वो नूर ए अल्वी 
या भटकती है रूह यूँ ही छूने उफ़क रेस्मान, 

रेशमी परों पे हैं तेरी ज़रीफ़ उँगलियों के दाग़ 
उड़ चले हैं,अब्रे ज़ज्बात,यूँ जानिबे आसमान,

ज़ियारतगाहों में जले हैं फिर असर ए फ़ानूस 
जावदां इश्क़ है ये, खिल चले फिर बियाबान,

सरजिंश न थे जामिद, उस हसीं गुनाह के लिए 
सूली से उतरते ही, वो हो चला यूँ ही बाग़ बान,

शहर भर चर्चा रहा, है उसकी वो मरमोज़ अदा 
मीरे कारवां बन चला वो अजनबी सा इन्सान,

तलातुम से उठ चले फिर मसरक़ी फ़लक पे 
सफ़रे ज़ीस्त में चलना, नहीं था इतना आसान,

ये कोशिश के बदल जाए हाक़िम का नज़रिया
हर दौर में दुनिया चाहती है सादिक़ मेहरबान, 

-- शांतनु सान्याल 

अर्थ :   
ना शनास - अज्ञात 
नूर ए अल्वी - दिव्य ज्योति 
उफ़क रेस्मान - क्षितिज रेखा 
ज़रीफ़ - नाज़ुक 
असर ए फ़ानूस - शाम के दीये 
जावदां - अनंत 
सरजिंश - इलज़ाम 
जामिद - ठोस 
मरमोज़ - रहस्मय 
तलातुम - आन्दोलन 
ज़ीस्त - ज़िन्दगी 
सादिक़ - इमानदार
 मसरक़ी फ़लक - पूर्वी आकाश

11 जनवरी, 2024

ख़ालिस नज़र में - -

सारी रात यूँ तो बंद थे तमाम दर ओ
दरीचे, कोई ख़्वाब शायद, जो
छू कर आई थी, किसी
गुल यास का बदन,
रूह की
बेइंतहा गहराइयों में अब तलक है - -
इश्क़ ए अतर बिखरा हुआ !
वो मेरा ख़याल ख़ाम
था या इंतहाई
उपासना,
उसे महसूस किया मैंने अपने अंदर -
दूर तक ! वो नादीद हो कर
भी था तहलील मेरी
नफ़स में, कि
अक्स ए
कायनात था यूँ सिमटा हुआ सा उसकी
ख़ालिस नज़र में.

* *
- शांतनु सान्याल

  

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10 जनवरी, 2024

तन्हा चिराग़ - -

राह ए सुख़न के लिए ज़रुरी है, दरीचा ए एहसास खुला रहे, सुख दुःख के बीच जीवन में कुछ साया ए रंग मिला जुला रहे, 

ज़रूरी नहीं उम्र भर के लिए लिखें कोई तहरीर ए हलफ़नामा, यादों में मुख़्तसर ही सही इक मिलने - जुलने का सिलसिला रहे, 

मंदिर - मस्जिद के बाहर बसती है ज़िन्दगी की  असल दुनिया, नफ़रतों के घने झुरमुट में इंसानियत का तन्हा चिराग़ जला रहे, 

- - शांतनु सान्याल

07 जनवरी, 2024

ओस की बूंदें - -

रूह को शिफ़ा मिले दर्द ओ अलम दवा बन जाए,
अक्स आईने से तो निकले ख़ुद रहनुमा बन जाए,

जीस्त महदूद न हो सिर्फ़ एक नुक़्ता ए नज़र तक,
घुटन भरे जज़्बात खुल कर बाद ए सबा बन जाए,

उम्र ख़त्म नहीं होती निगाह से दिल तक पहुंच कर,
 इश्क़ जुनूं न हो इतनी कि ज़िन्दगी क़ज़ा बन जाए,

क्यूं महफ़िल पूछती है मुझसे आवारगी के वजूहात
कुछ देर रहे तब्बसुम, क़ब्ल इसके बेवफ़ा बन जाए,

पलकों पे जमी हुई हैं कुछ महकती बूंदों की लड़ियाँ,
सांसों की छुअन से मुहोब्बत क़तरा ए नदा बन जाए,
- - शांतनु सान्याल




06 जनवरी, 2024

शाप मुक्त - -

रग ए जां से गुज़रते तो जान पाते हाल ए दिल की बात, काँटों का ताज भी लगता है इश्क़ की अनमोल सौगात,


अक्स मेरा सतही था या रंगीन बूंदों का कोई बुलबुला,
गुल ए शबाना की तरह बिखरता गया वजूद आधी रात,

कोई तिलस्मी आईना था, जो मुझे कुंदन सा बना गया,
तिशना ए लब छू कर, ले गया ख़ुश्बू ए रूह अपने साथ,

संग ए अज़ाब की तरह सदियों से था मैं एक पैकर बेजान,
उसकी इबादत ए उरूज ने मुझको ज़िंदा किया आज़ाद ।
- - शांतनु सान्याल



03 जनवरी, 2024

संग ए मील - -

आग सुलगती सी अपनी जगह सुदूर कोई धुआं न था,
सराय तकता रहा हद ए नज़र कहीं कोई कारवां न था,

तमाशबीनों के बीच ज़िंदगी, नीलाम होती रही अक्सर,
हैरान से सभी चेहरे हाथ बढ़ाने को कोई मेहरबाँ न था,

धूप की अपनी है मजबूरी ढल चली सूरज के छुपते ही
प्याली बढ़ाई थी उसने, जब दिल में कोई अरमां न था,

हासिए से उभर के, कुछ जज़्बात तहरीर तक न पहुँचे,
लोग सोचा किए गूंगा जिसे, जनम से वो बेज़ुबाँ न था,

हर एक मोड़ पे यूं तो, ढेर सारे मंज़िलों के थे संगे मील,
जिस्म से हट कर रूह तक उतरने का कोई निशां न था ।
- - शांतनु सान्याल


01 जनवरी, 2024

सिर्फ़ साल ही गुज़रा है - -

बुझ गई रात जल के बूंद बूंद सुदूर बस यादों के शरारे रह गए,

कौन डूबा कौन पार हुआ ज़िंदगी में कुछ टूटते किनारे रह गए,


रखे कोई हथेली में, कुछ ओस की क़तरे राहत ए जाँ के लिए

बातख़ल्लुफ़ ही सही, ज़िंदगी में यूं तो हसरतें बेशुमार रह गए,


सूखी नदी की वेदना सिवाय पत्थरों के कोई भी नहीं जानता,

टूटा हुआ पुल ही सही, उम्मीद ए सफ़र दरमियां हमारे रह गए,


सिलसिला ए दोस्ती बनी रहे अपनी जगह बिन दिल मिलाए,

कैलेंडर बदला है, यूं तो अनसुलझे हालात बहुत सारे रह गए ।

- - शांतनु सान्याल


अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past