25 अप्रैल, 2022

मिलने की बेक़रारी - -

उतरती है चाँदनी धीरे - धीरे, मुंडेरों से
हो कर, झूलते अहातों तक, फिर भी
मिलती नहीं, रूह ए मकां  को
तस्कीं, इक रेशमी अंधेरा
सा घिरा रहता है दिल
की गहराइयों तक,
हम खोजते हैं
ख़ुद को
अपने ही बिम्ब के उस पार, जबकि ये
वजूद रहता है मौजूद, यहीं पे कहीं,
फिर भी मिलती नहीं, रूह ए
मकां को तस्कीं। हर सिम्त
हैं बिखरे हुए अनगिनत
चेहरे, उम्र गुज़र
जाती है बस
असल
चेहरे की तलाश में, इक लकीर की तरह
खींची हुई है नियति की डोर, दो
स्तंभों के बीच, गुज़रती है
जिस पर ये ज़िन्दगी
लिए सीने में
जीने की
आस,
हज़ार बार टूटे, हज़ार बार जुड़ के उभरे,
बिखरते नहीं फिर भी मुहोब्बत के
एहसास, हर सुबह हम तुमसे
मिलेंगे वहीं ,जहाँ मिलते
हैं रोज़ ये आसमान
और बेक़रार सी
ज़मीं, फिर
भी
मिलती नहीं, रूह ए मकां को तस्कीं । - -
* *
- - शांतनु सान्याल
 

9 टिप्‍पणियां:

  1. ज़िंदगी इसी तलाश का दूसरा नाम है

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  2. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" बुधवार 27 अप्रैल 2022 को लिंक की जाएगी ....

    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद!
    !

    अथ स्वागतम् शुभ स्वागतम्

    जवाब देंहटाएं
  3. हज़ार बार टूटे, हज़ार बार जुड़ के उभरे,
    बिखरते नहीं फिर भी मुहोब्बत के
    एहसास,sunder bhav !!

    जवाब देंहटाएं

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