जन अरण्य में भी बहुधा जीवन होता है
निःसंग, कहने को झिलमिलाते हैं
हर तरफ आलोकमय माला,
निर्लिप्त सा रहता है
मन का आँगन,
और शून्य
होता
है
देह का प्याला, फिके फिके से लगते हैं
इंद्र धनुष के रंग, जन अरण्य में भी
बहुधा जीवन होता है निःसंग ।
इन विराग पलों से ही
निकलते हैं आत्म
परिचय के
ठिकाने,
वो
सभी चेहरे थे क्षणिक, उभरे और पलक
झपकते ही खो गए किधर, कौन
जाने ? शाब्दिक जाल हैं सभी
आत्मीयता के रास्ते,
कोई नहीं मरता
किसी के
वास्ते,
बस
मृग मरीचिका में ढूंढते हैं हम अविरत
अपना अंतरंग, जन अरण्य में
भी बहुधा जीवन होता है
निःसंग ।
* *
- - शांतनु सान्याल
30 अप्रैल, 2022
29 अप्रैल, 2022
समानांतर यात्रा - -
अग्नि - पुष्प की तरह उभर आते हैं वो
सभी निखोज स्वप्न, जो दबे रहते
हैं राखरंगीं सुदूर प्रांतरों में,
अशेष हैं सभी रास्ते,
मृग जलों की
दुनिया के
उस
पार, अदृश्य रात्रि निवास की है अपनी
ही अलग ख़ूबसूरती, उम्मीद के
चिराग़ बुझते कभी नहीं
समय के मध्यान्तरों
में, उभर आते हैं
सभी विलुप्त
स्वप्न,
राखरंगीं सुदूर प्रांतरों में। समुद्र सैकत
पर खड़ा हूँ मैं, ले कर हिय में एक
अगाध तृषा, जबकि कुछ बूंद
ही प्रयाप्त हैं जीने के
लिए, टूटे हार की
तरह अक्सर
हम ढूंढते
है एक
रेशमी डोर, सांसों के मोती पिरोने के -
लिए, मध्यम मार्ग पर चल रहा
हूँ मैं, चल रहे हैं दोनों तरफ
धूप और छाया, प्रकृत
समानान्तरों में,
उभर आते
हैं सभी
विलुप्त स्वप्न, राखरंगीं सुदूर प्रांतरों
में।
* *
- - शांतनु सान्याल
सभी निखोज स्वप्न, जो दबे रहते
हैं राखरंगीं सुदूर प्रांतरों में,
अशेष हैं सभी रास्ते,
मृग जलों की
दुनिया के
उस
पार, अदृश्य रात्रि निवास की है अपनी
ही अलग ख़ूबसूरती, उम्मीद के
चिराग़ बुझते कभी नहीं
समय के मध्यान्तरों
में, उभर आते हैं
सभी विलुप्त
स्वप्न,
राखरंगीं सुदूर प्रांतरों में। समुद्र सैकत
पर खड़ा हूँ मैं, ले कर हिय में एक
अगाध तृषा, जबकि कुछ बूंद
ही प्रयाप्त हैं जीने के
लिए, टूटे हार की
तरह अक्सर
हम ढूंढते
है एक
रेशमी डोर, सांसों के मोती पिरोने के -
लिए, मध्यम मार्ग पर चल रहा
हूँ मैं, चल रहे हैं दोनों तरफ
धूप और छाया, प्रकृत
समानान्तरों में,
उभर आते
हैं सभी
विलुप्त स्वप्न, राखरंगीं सुदूर प्रांतरों
में।
* *
- - शांतनु सान्याल
28 अप्रैल, 2022
निःशब्द कथोपकथन - -
वो पल थे अविस्मरणीय, जो खुले आकाश
के नीचे बिखर गए, अवाक थे तुम
और मैं भी निःशब्द, सिर्फ़
चल रहे थे अंतरिक्ष
में सितारों के
जुलूस !
तुमने कुछ भी न कहा, लेकिन रूह तक जा
पहुंची तुम्हारी वो अनकही बातें, उन
पलों में हम ने जाना जीवन का
सौंदर्य, उन रहस्यमयी
क्षणों में हम भूल
गए दुनिया
की सभी
घातें,
सिर्फ़ कुछ याद रहा तो वो था परस्पर का
एक ख़ामोश, हमआहंगी वो ख़ुलूस,
अवाक थे तुम और मैं भी
निःशब्द, सिर्फ़ चल
रहे थे अंतरिक्ष में
सितारों के
जुलूस !
इक उम्र से कहीं ज़्यादा हम जी चुके हैं -
उन ख़ूबसूरत लम्हों के दरमियां,
क्या पाया हम ने और क्या
कुछ खो दिया उनका
हिसाब कौन करे,
चाहे बना लो
जितने भी
अमूल्य शीशमहल, पलक झपकते ही
हैं सभी ताश के आसमां, सिर्फ़
रहते हैं सदा रौशन दिलों
में मुहोब्बत के
फ़ानूस,
अवाक थे तुम और मैं भी निःशब्द, सिर्फ़
चल रहे थे अंतरिक्ष में
सितारों के
जुलूस !
* *
- - शांतनु सान्याल
के नीचे बिखर गए, अवाक थे तुम
और मैं भी निःशब्द, सिर्फ़
चल रहे थे अंतरिक्ष
में सितारों के
जुलूस !
तुमने कुछ भी न कहा, लेकिन रूह तक जा
पहुंची तुम्हारी वो अनकही बातें, उन
पलों में हम ने जाना जीवन का
सौंदर्य, उन रहस्यमयी
क्षणों में हम भूल
गए दुनिया
की सभी
घातें,
सिर्फ़ कुछ याद रहा तो वो था परस्पर का
एक ख़ामोश, हमआहंगी वो ख़ुलूस,
अवाक थे तुम और मैं भी
निःशब्द, सिर्फ़ चल
रहे थे अंतरिक्ष में
सितारों के
जुलूस !
इक उम्र से कहीं ज़्यादा हम जी चुके हैं -
उन ख़ूबसूरत लम्हों के दरमियां,
क्या पाया हम ने और क्या
कुछ खो दिया उनका
हिसाब कौन करे,
चाहे बना लो
जितने भी
अमूल्य शीशमहल, पलक झपकते ही
हैं सभी ताश के आसमां, सिर्फ़
रहते हैं सदा रौशन दिलों
में मुहोब्बत के
फ़ानूस,
अवाक थे तुम और मैं भी निःशब्द, सिर्फ़
चल रहे थे अंतरिक्ष में
सितारों के
जुलूस !
* *
- - शांतनु सान्याल
27 अप्रैल, 2022
शब्द रचना - -
वर्ग पहेली की तरह है ये रात, लफ़्ज़ों
के जाल हैं खुली निगाहों के ख़्वाब,
पलकों के चिलमन में हैं छुपे
हुए, अनबूझ सवालों के
जवाब, कोई ख़ुश्बू
है जो अंदर
तक छू
जाती है रूह की गहराई, इक अंतरंग
छुअन है कोई, या प्रणयी चंद्र -
सुधा, सुलगते पलों में है
ये किस की संदली
परछाई, कुछ
ही पलों
का
है ये खेल पुरअसरार, फिर वही थके
पांव उतरती है चांदनी, बिखरे
पड़े रहते हैं आख़री पहर
बेतरतीब से सभी
साहिल पर
सीप के
खोल,
कुछ शब्द अनमोल, शून्य संदूक में
खोजते हैं हम बेवजह ही गुमशुदा
असबाब, वर्ग पहेली की तरह
है ये रात, लफ़्ज़ों के
जाल हैं खुली
निगाहों के
ख़्वाब।
* *
- - शांतनु सान्याल
के जाल हैं खुली निगाहों के ख़्वाब,
पलकों के चिलमन में हैं छुपे
हुए, अनबूझ सवालों के
जवाब, कोई ख़ुश्बू
है जो अंदर
तक छू
जाती है रूह की गहराई, इक अंतरंग
छुअन है कोई, या प्रणयी चंद्र -
सुधा, सुलगते पलों में है
ये किस की संदली
परछाई, कुछ
ही पलों
का
है ये खेल पुरअसरार, फिर वही थके
पांव उतरती है चांदनी, बिखरे
पड़े रहते हैं आख़री पहर
बेतरतीब से सभी
साहिल पर
सीप के
खोल,
कुछ शब्द अनमोल, शून्य संदूक में
खोजते हैं हम बेवजह ही गुमशुदा
असबाब, वर्ग पहेली की तरह
है ये रात, लफ़्ज़ों के
जाल हैं खुली
निगाहों के
ख़्वाब।
* *
- - शांतनु सान्याल
25 अप्रैल, 2022
मिलने की बेक़रारी - -
उतरती है चाँदनी धीरे - धीरे, मुंडेरों से
हो कर, झूलते अहातों तक, फिर भी
मिलती नहीं, रूह ए मकां को
तस्कीं, इक रेशमी अंधेरा
सा घिरा रहता है दिल
की गहराइयों तक,
हम खोजते हैं
ख़ुद को
अपने ही बिम्ब के उस पार, जबकि ये
वजूद रहता है मौजूद, यहीं पे कहीं,
फिर भी मिलती नहीं, रूह ए
मकां को तस्कीं। हर सिम्त
हैं बिखरे हुए अनगिनत
चेहरे, उम्र गुज़र
जाती है बस
असल
चेहरे की तलाश में, इक लकीर की तरह
खींची हुई है नियति की डोर, दो
स्तंभों के बीच, गुज़रती है
जिस पर ये ज़िन्दगी
लिए सीने में
जीने की
आस,
हज़ार बार टूटे, हज़ार बार जुड़ के उभरे,
बिखरते नहीं फिर भी मुहोब्बत के
एहसास, हर सुबह हम तुमसे
मिलेंगे वहीं ,जहाँ मिलते
हैं रोज़ ये आसमान
और बेक़रार सी
ज़मीं, फिर
भी
मिलती नहीं, रूह ए मकां को तस्कीं । - -
* *
- - शांतनु सान्याल
हो कर, झूलते अहातों तक, फिर भी
मिलती नहीं, रूह ए मकां को
तस्कीं, इक रेशमी अंधेरा
सा घिरा रहता है दिल
की गहराइयों तक,
हम खोजते हैं
ख़ुद को
अपने ही बिम्ब के उस पार, जबकि ये
वजूद रहता है मौजूद, यहीं पे कहीं,
फिर भी मिलती नहीं, रूह ए
मकां को तस्कीं। हर सिम्त
हैं बिखरे हुए अनगिनत
चेहरे, उम्र गुज़र
जाती है बस
असल
चेहरे की तलाश में, इक लकीर की तरह
खींची हुई है नियति की डोर, दो
स्तंभों के बीच, गुज़रती है
जिस पर ये ज़िन्दगी
लिए सीने में
जीने की
आस,
हज़ार बार टूटे, हज़ार बार जुड़ के उभरे,
बिखरते नहीं फिर भी मुहोब्बत के
एहसास, हर सुबह हम तुमसे
मिलेंगे वहीं ,जहाँ मिलते
हैं रोज़ ये आसमान
और बेक़रार सी
ज़मीं, फिर
भी
मिलती नहीं, रूह ए मकां को तस्कीं । - -
* *
- - शांतनु सान्याल
22 अप्रैल, 2022
लापता सूत्र - -
दिन के उजाले में नहीं डूबते अंधेरों के
चिराग़, परछाइयों के हैं सब खेल
जो दिखता है खुली निगाह से
वो नहीं मुक्कमल जहां,
पृथ्वी के उस पार
भी है जीवन
का एक
भाग,
दिन के उजाले में नहीं डूबते अंधेरों के
चिराग़ । राज पथ के दोनों तरफ हैं
दो अलग दुनिया, जोड़ता है
जिन्हें अदृश्य मुहोब्बतों
का पुल, फिर भी
दूरियों को
पाटना
नहीं
आसां, ढूंढती हैं दूर तक किसे तेरी ये -
प्यासी निगाहें, जो खो गए धुंधले
क्षितिज के पार, नहीं मिलता
उम्र भर उनका निशां,
जो छुपा रहा मेरे
अंतरतम में
उस का
कोई न दे पाया सठिक सुराग़, दिन के
उजाले में नहीं डूबते अंधेरों
के चिराग़ ।
* *
- - शांतनु सान्याल
चिराग़, परछाइयों के हैं सब खेल
जो दिखता है खुली निगाह से
वो नहीं मुक्कमल जहां,
पृथ्वी के उस पार
भी है जीवन
का एक
भाग,
दिन के उजाले में नहीं डूबते अंधेरों के
चिराग़ । राज पथ के दोनों तरफ हैं
दो अलग दुनिया, जोड़ता है
जिन्हें अदृश्य मुहोब्बतों
का पुल, फिर भी
दूरियों को
पाटना
नहीं
आसां, ढूंढती हैं दूर तक किसे तेरी ये -
प्यासी निगाहें, जो खो गए धुंधले
क्षितिज के पार, नहीं मिलता
उम्र भर उनका निशां,
जो छुपा रहा मेरे
अंतरतम में
उस का
कोई न दे पाया सठिक सुराग़, दिन के
उजाले में नहीं डूबते अंधेरों
के चिराग़ ।
* *
- - शांतनु सान्याल
14 अप्रैल, 2022
यथावत हैं सभी रास्ते - -
सभी आवरण देता है उतार, निःशब्द ये
गाढ़ अंधकार, चंद्र विहीन आकाश
में है बदस्तूर सितारों का
उत्थान - पतन, शूल
सेज पर होता है
तब अक्सर
एकाकी
ये जीवन, झुरमुटों से झांकते हैं कुछ -
आत्मीय स्वजन, उजालों तक हैं
सभी सिमित ये अंतरंग
चेहरे, अंधेरे में किसी
को नहीं किसी
से कोई भी
सरोकार,
सभी आवरण देता है उतार, निःशब्द ये
गाढ़ अंधकार। मायाविनी इस रात
की गहराई में ढूंढता हूँ मैं अपनी
ही गुमशुदा छाया, अंतिम
प्रहर में मिलने की
प्रतिश्रुति थी
बहुत ही
झूठी,
क्षितिज पर ठहरा रहा देर तक, लेकिन
मुझसे मिलने वहां कोई नहीं आया,
वही दूर तक फैली हुई है धुंध
की चादर, वही रास्ते
पेंचदार, सभी
आवरण
देता है
उतार, निःशब्द ये गाढ़ अंधकार - - -
* *
- - शांतनु सान्याल
गाढ़ अंधकार, चंद्र विहीन आकाश
में है बदस्तूर सितारों का
उत्थान - पतन, शूल
सेज पर होता है
तब अक्सर
एकाकी
ये जीवन, झुरमुटों से झांकते हैं कुछ -
आत्मीय स्वजन, उजालों तक हैं
सभी सिमित ये अंतरंग
चेहरे, अंधेरे में किसी
को नहीं किसी
से कोई भी
सरोकार,
सभी आवरण देता है उतार, निःशब्द ये
गाढ़ अंधकार। मायाविनी इस रात
की गहराई में ढूंढता हूँ मैं अपनी
ही गुमशुदा छाया, अंतिम
प्रहर में मिलने की
प्रतिश्रुति थी
बहुत ही
झूठी,
क्षितिज पर ठहरा रहा देर तक, लेकिन
मुझसे मिलने वहां कोई नहीं आया,
वही दूर तक फैली हुई है धुंध
की चादर, वही रास्ते
पेंचदार, सभी
आवरण
देता है
उतार, निःशब्द ये गाढ़ अंधकार - - -
* *
- - शांतनु सान्याल
09 अप्रैल, 2022
टूटे हुए मेहराब - -
दूर बहुत दूर तक फैले हुए हैं यादों के
खण्डहर, न जाने क्या चाहते हैं
मुझसे, वो टूटे हुए मेहराबों
से झांकते, अर्ध स्मित
चेहरे, प्राचीन
मठ का
कोई
एकाकी सन्यासी है गोधूलि आकाश,
चाहता है शायद तोड़ना धरती
से अपना मोहपाश, सूखे
पत्ते की है अपनी ही
अलग कहानी,
कोई किसी
के लिए
आख़िर क्यूँ कर ठहरे, वो टूटे हुए -
मेहराबों से झांकते, अर्ध स्मित
चेहरे। वो सभी चेहरों में
ढूंढता हूँ मैं, सुबह
की मुलायम
धूप, एक
अनुबंध
जो
कदाचित बंधा था उन्मुक्त ख़ुशी के
लिए, सुबह से पहले कोई द्वार
पर लगा गया शून्यता का
कुलूप, कहाँ जाएं, किस
से मिलें, दो बात
करें हिय की,
ये शहर
है बड़ा
मायावी, यूँ तो शोरगुल है हर तरफ -
लेकिन एहसास हैं सभी गूंगे
और बहरे, वो टूटे हुए
मेहराबों से झांकते,
अर्ध स्मित
चेहरे।
* *
- - शांतनु सान्याल
खण्डहर, न जाने क्या चाहते हैं
मुझसे, वो टूटे हुए मेहराबों
से झांकते, अर्ध स्मित
चेहरे, प्राचीन
मठ का
कोई
एकाकी सन्यासी है गोधूलि आकाश,
चाहता है शायद तोड़ना धरती
से अपना मोहपाश, सूखे
पत्ते की है अपनी ही
अलग कहानी,
कोई किसी
के लिए
आख़िर क्यूँ कर ठहरे, वो टूटे हुए -
मेहराबों से झांकते, अर्ध स्मित
चेहरे। वो सभी चेहरों में
ढूंढता हूँ मैं, सुबह
की मुलायम
धूप, एक
अनुबंध
जो
कदाचित बंधा था उन्मुक्त ख़ुशी के
लिए, सुबह से पहले कोई द्वार
पर लगा गया शून्यता का
कुलूप, कहाँ जाएं, किस
से मिलें, दो बात
करें हिय की,
ये शहर
है बड़ा
मायावी, यूँ तो शोरगुल है हर तरफ -
लेकिन एहसास हैं सभी गूंगे
और बहरे, वो टूटे हुए
मेहराबों से झांकते,
अर्ध स्मित
चेहरे।
* *
- - शांतनु सान्याल
07 अप्रैल, 2022
ख़ुद से ख़ुद तक - -
दूसरी मंज़िल से उतर कर पार्क तक - -
सिमटती है ज़िन्दगी, यहाँ सूर्य
तपता है पूरी शिद्दत से,
पल्लव विहीन
मौलश्री के
नीचे
जा कहीं रुकता है कुछ पलों का पर्यटन,
थके हुए चेहरों में अपना अक्स
ढूंढता है ये जीवन । तुम्हारे
देश में शायद, बहती
हों सर्द हवाएं,
यहाँ फ़ुर्सत
ही नहीं
मिलती कि निकलें अग्नि वलय से - -
बाहर, थोड़ी दूर जा टहल आएं,
फिर भी नहीं थमता है
चाहतों का अंतहीन
भ्रमण, थके हुए
चेहरों में
अपना
अक्स ढूंढता है ये जीवन । मन ही मन
बहुत दूर जा कर लौट आया हूँ,
वही नदी के दो किनारे,
इस तट कोलाहल
और उस पार
है विस्तृत
ख़ामोशी,
सोचता हूँ जो कुछ है हासिल इस पल
वही सत्य है, बाक़ी अर्थहीन हैं
सभी दुःख और ख़ुशी,
अशेष रहता है
चिरकाल
स्व -
तर्पण, नियति के हाथ होते हैं हमेशा
ही महा कृपण, थके हुए चेहरों में
अपना अक्स ढूंढता है
ये जीवन ।
* *
- - शांतनु सान्याल
सिमटती है ज़िन्दगी, यहाँ सूर्य
तपता है पूरी शिद्दत से,
पल्लव विहीन
मौलश्री के
नीचे
जा कहीं रुकता है कुछ पलों का पर्यटन,
थके हुए चेहरों में अपना अक्स
ढूंढता है ये जीवन । तुम्हारे
देश में शायद, बहती
हों सर्द हवाएं,
यहाँ फ़ुर्सत
ही नहीं
मिलती कि निकलें अग्नि वलय से - -
बाहर, थोड़ी दूर जा टहल आएं,
फिर भी नहीं थमता है
चाहतों का अंतहीन
भ्रमण, थके हुए
चेहरों में
अपना
अक्स ढूंढता है ये जीवन । मन ही मन
बहुत दूर जा कर लौट आया हूँ,
वही नदी के दो किनारे,
इस तट कोलाहल
और उस पार
है विस्तृत
ख़ामोशी,
सोचता हूँ जो कुछ है हासिल इस पल
वही सत्य है, बाक़ी अर्थहीन हैं
सभी दुःख और ख़ुशी,
अशेष रहता है
चिरकाल
स्व -
तर्पण, नियति के हाथ होते हैं हमेशा
ही महा कृपण, थके हुए चेहरों में
अपना अक्स ढूंढता है
ये जीवन ।
* *
- - शांतनु सान्याल
06 अप्रैल, 2022
पूर्व लिखित तहरीर - -
बेदाग़ यहाँ कोई नहीं, चश्म ए अंदाज़ है
अपना अपना, जो हथेली पर रुका
कुछ पल के लिए वो एहसास
ए बूंद है मुहोब्बत, जो
छलक गया मेरी
पलकों से हो
कर, वो
था
सुबह का कोई नाज़ुक सा सपना, बेदाग़
यहाँ कोई नहीं, चश्म ए अंदाज़ है
अपना अपना। दिगंत पर आ
कर मैं ढूंढता हूँ शब ए
गुज़िश्ता का निशां,
कौन, किस
सिम्त
जा
मुड़ा कहना है बहुत मुश्किल, सुबह है
वही ताज़गी भरी, वही उन्मुक्त
आसमां, दरअसल पूर्व -
लिखित होते हैं
मिलना
और
बिछुड़ना, बेदाग़ यहाँ कोई नहीं, चश्म
ए अंदाज़ है अपना अपना।
* *
- - शांतनु सान्याल
अपना अपना, जो हथेली पर रुका
कुछ पल के लिए वो एहसास
ए बूंद है मुहोब्बत, जो
छलक गया मेरी
पलकों से हो
कर, वो
था
सुबह का कोई नाज़ुक सा सपना, बेदाग़
यहाँ कोई नहीं, चश्म ए अंदाज़ है
अपना अपना। दिगंत पर आ
कर मैं ढूंढता हूँ शब ए
गुज़िश्ता का निशां,
कौन, किस
सिम्त
जा
मुड़ा कहना है बहुत मुश्किल, सुबह है
वही ताज़गी भरी, वही उन्मुक्त
आसमां, दरअसल पूर्व -
लिखित होते हैं
मिलना
और
बिछुड़ना, बेदाग़ यहाँ कोई नहीं, चश्म
ए अंदाज़ है अपना अपना।
* *
- - शांतनु सान्याल
01 अप्रैल, 2022
मोतियों का हार - -
न खींच कोई अदृश्य रेखा जीवन वृत्त
के आस पास, मुस्कुराने की कोई
समय - सीमा नहीं होती, कैसे
समझाएं तुम्हें कि ये
हासिल पल है
बेहद
क़ीमती हार, ज़रा सी ग़फ़लत में बिखर
जाएंगे, आईना रह जाएगा स्तब्ध,
निःशब्द होगी सिंगारदानी,
हम खोजते रह जाएंगे
गुमशुदा मोतियों
के ठिकाने,
किसे
मालूम इस धुंध की घाटी में हम सभी -
किधर जाएंगे, ये हासिल पल है
बेहद क़ीमती हार, ज़रा
सी ग़फ़लत में
बिखर
जाएंगे। वर्षावन की ये जिजीविषा नहीं
थमती चाहे कितने ही ऊपर हो
एक बूंद सूर्य किरण, हर
हाल में ज़िन्दगी को
करनी है अंतहीन
यात्रा, पर्ण -
अंचल
की है अपनी अलग ही नियति, क्या -
फ़र्क़ पड़ता है मुझे मिला हो
केवल भीगा स्पर्श, और
तुम्हें असीम मात्रा,
तिलिस्म
छुअन
की
है अपनी अलग तासीर, देखना एक
दिन हम भी निखर जाएंगे,
ये हासिल पल है बेहद
क़ीमती हार, ज़रा
सी ग़फ़लत
में बिखर
जाएंगे।
* *
- - शांतनु सान्याल
के आस पास, मुस्कुराने की कोई
समय - सीमा नहीं होती, कैसे
समझाएं तुम्हें कि ये
हासिल पल है
बेहद
क़ीमती हार, ज़रा सी ग़फ़लत में बिखर
जाएंगे, आईना रह जाएगा स्तब्ध,
निःशब्द होगी सिंगारदानी,
हम खोजते रह जाएंगे
गुमशुदा मोतियों
के ठिकाने,
किसे
मालूम इस धुंध की घाटी में हम सभी -
किधर जाएंगे, ये हासिल पल है
बेहद क़ीमती हार, ज़रा
सी ग़फ़लत में
बिखर
जाएंगे। वर्षावन की ये जिजीविषा नहीं
थमती चाहे कितने ही ऊपर हो
एक बूंद सूर्य किरण, हर
हाल में ज़िन्दगी को
करनी है अंतहीन
यात्रा, पर्ण -
अंचल
की है अपनी अलग ही नियति, क्या -
फ़र्क़ पड़ता है मुझे मिला हो
केवल भीगा स्पर्श, और
तुम्हें असीम मात्रा,
तिलिस्म
छुअन
की
है अपनी अलग तासीर, देखना एक
दिन हम भी निखर जाएंगे,
ये हासिल पल है बेहद
क़ीमती हार, ज़रा
सी ग़फ़लत
में बिखर
जाएंगे।
* *
- - शांतनु सान्याल
सदस्यता लें
संदेश (Atom)
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कुछ स्मृतियां बसती हैं वीरान रेलवे स्टेशन में, गहन निस्तब्धता के बीच, कुछ निरीह स्वप्न नहीं छू पाते सुबह की पहली किरण, बहुत कुछ रहता है असमा...