वो सभी चेहरे, जाने पहचाने, लगे पहलु बदलने,
जब ढलती धूप ने मुझसे, क़रार ताल्लुक़
तोड़ लिया, इक अँधेरा है मेहरबां
अपना, जो निभाता है
अहद ए क़दीम
बारहा,
वो सदाएँ जिनमे थीं कभी तासीर ज़िन्दगी, न
जाने क्या हुआ, वादियों तक जा कर
फिर कभी न लौट पायीं, शायद
सुबह ओ शाम के दरमियां
थे सदियों के रुकावटें,
इक इंतज़ार
बेशुमार,
और न आने के बहाने हज़ार, कि ज़िन्दगी -
अब दर्द को दवा में तब्दील कर
चली है आहिस्ता - -
आहिस्ता !
- शांतनु सान्याल
http://sanyalsduniya2.blogspot.com/
painting by artist Paul Wolber ...
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