02 मार्च, 2012

जलते पगडंडियों में दूर तक -

वो बिखराव जो समेटता है मुझे अपने हर बूँद
में, उसी भीगे अहसास में ज़िन्दगी चाहती
है फिर बिखर जाना, वही मुस्कान जो
मुझे देता है सुकूं, हर बार टूट कर
जुड़ से जाते हैं सांसों के
नाज़ुक मरासिम,
अभी तो
छुआ है सिर्फ़ ख़ुश्बू की परत को, क़ुर्बत को
ज़रा और महक जाने दे, सजे कुछ
देर और  जाफ़रानी शाम, ढले
तो सही सूरज मुक्कमल
तौर से, रात के
आँचल में
उभरे ख़्वाबों के कशीदाकारी, छन कर आने दे
गुलमोहर के पत्तों से थोड़ी सी चांदनी,
रूह ओ ज़िन्दगी फिर चाहती हैं
चंद लम्हात  तेरी निगाहों
के छाँव में यूँ ही
गुज़ारना,
फिर चाहे तो ले चल, क़िस्मत मुझे दहकते हुए
पगडंडियों में दूर तक - - -

- शांतनु सान्याल



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past