आत्मसात
को बिखेरना सहज नहीं, चौखट के बाहर
मैं रहूँ या परछाई, हर दृष्टि में
न मैं याचक न तुम ही हो
दाता, उनकी
अपनी हों,
कदाचित बाध्यताएं, आंचल समेटने से पूर्व बंद
हो गए आशीषों के द्वार, भाग्य लेखन
जो भी हो, बंद होते नहीं उद्भासित
दिव्य पांथशाला, सुपात्र की
परिभाषा किसने गढ़ी
उन्हें सठिक हो
ज्ञात,
ऋत्विक ने तो सींचा था पवित्र जल सबके लिए
एक समान, ये कहना कठिन है, कौन
कितना और किस तरह कर
सका उसे परिपूर्ण
आत्मसात.
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