28 मार्च, 2012


अदृश्य छाया 

अंतहीन चाहत जीवन के, लेकिन हाथों में 
चार प्रहर, कभी तो आ बन कर सांध्य
प्रदीप, शून्य देवालय हैं कब से 
प्रतीक्षारत, उठ चले प्राणों 
से ज्यों धूम्र वलय, 
घिर चले हों 
जैसे 
ईशान्यकोणी मेघदल, कभी तो आ यूँ ही 
निशि पुष्पित गंधों में ढल कर, 
भर जा सांसों में कोई 
चंदनी आभास, 
रख जा 
फिर से कोई, नयन पातों पर स्वप्नील 
आकाश, सजने दे क्लांत यामिनी 
खिल चले हों जैसे रजनी 
गंध के वृंत, लिख 
जा पुनः 
अप्रकाशित, स्निग्ध बिहानी गीत, मन के 
स्वरलिपि हैं आतुर, फिर उसे 
गुनगुनाने को, दे जा 
कोई ओष में 
भीगी 
जीवन प्रभात, तृषित हिय चाहे दो पल 
विश्राम - - - 

- शांतनु सान्याल
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