27 मार्च, 2012

अर्थहीन नहीं वो बूंद

इस सुबह शाम के लेखाचित्र में कहीं,
किसी एक बिंदु पर था, ठहरा सा 
प्रणय बूंद पारदर्शी, उठते 
गिरते  तरंगों के 
भीड़ में 
लेकिन वो अपनी बात कह न सका, 
दौड़ गए सब मधुमास के पीछे, 
हस्ताक्षर चाहिए मन में 
या देह की भूमि है 
पंजीयनहीन, 
कहना आसान नहीं, वो चाह कर भी 
ज्यादा दूर बह न सका, एक 
अनुबंध जो कारावास 
में भी मुस्कुराता 
है, जीवन 
की वही प्रतिबद्धता, जो दूसरों के लिए 
उत्कीर्ण हैं, स्वयं की आत्म कथा 
तो अर्थहीन हैं, यही सोच-
उसे  खुले पिंजरे से 
कभी बाहर
उड़ा  न सका, वो बूंद अपनी जगह से आगे 
इसलिए बढ़ न सका - - - 

- शांतनु सान्याल

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

अतीत के पृष्ठों से - - Pages from Past