इस सुबह शाम के लेखाचित्र में कहीं,
किसी एक बिंदु पर था, ठहरा सा
प्रणय बूंद पारदर्शी, उठते
गिरते तरंगों के
भीड़ में
लेकिन वो अपनी बात कह न सका,
दौड़ गए सब मधुमास के पीछे,
हस्ताक्षर चाहिए मन में
या देह की भूमि है
पंजीयनहीन,
कहना आसान नहीं, वो चाह कर भी
ज्यादा दूर बह न सका, एक
अनुबंध जो कारावास
में भी मुस्कुराता
है, जीवन
की वही प्रतिबद्धता, जो दूसरों के लिए
उत्कीर्ण हैं, स्वयं की आत्म कथा
तो अर्थहीन हैं, यही सोच-
उसे खुले पिंजरे से
कभी बाहर
उड़ा न सका, वो बूंद अपनी जगह से आगे
इसलिए बढ़ न सका - - -
- शांतनु सान्याल
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें